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''उर्वशी का श्राप'' PART 1 बुद्ध अकादमी टीकमगढ़ भानू प्रताप सेन
created Mar 28th 2017, 09:21 by BhanuPratapSen
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उन दिनों पाण्डव वन में रहकर समय बिता रहे थे। अर्जुन ने अपने भाईयों से अनुमति ली, और शंकर की आराधना में लग गए। अर्जुन ने भगवान शंकर की अराधना में, अनेक कष्ट सहन किए, परनतु वे तनिक भी नहीं घबराए। अंत में तपस्या सिद्ध हुई, और भगवान प्रकट हुए, उनहोंने प्रसन्न होकर अर्जुन को 'पाशुपतास्त्र' प्रदान किया। ये मिलते ही अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि अब तो उन्हें कोई भी हरा नहीं सकता था। अर्जुन ने अपनी साधना जारी रखी, उनके समक्ष सूर्य, कुबेर, इन्द्र और वरूण देवता भी प्रकट हुए। सब लोगों ने प्रसन्न होकर अर्जुन को दिव्यास्त्र भेंट कर दिये। इन्द्र देवता वोले - अर्जुन तुम अपनी तपस्या के कारण पवित्र बन चुके हो। यदि तुम चाहोगे तो सशरीर भी स्वर्ग जा सकते हो। मेरा रथ लेकर सारथी तुम्हारे पास आ जाएगा। सभी देवता अपने-अपने दिव्यास्त्र देकर चले गए, तो अर्जुन का मन भी स्वर्ग के दर्शन करने के लिए व्याकुल रहने लगा। वे बड़ी बैचेनी से इन्द्र के रथ की प्रतीक्षा करने लगे। अंत में एक दिन इन्द्र भगवान का सुन्दर सा रथ आ गया। वह अर्जुन को बड़े आदर-सत्कार से इन्द्रपुरी ले गया। इन्द्रपुरी में पहुंचते ही अर्जुन का शानदार स्वागत किया गया। यह पहला ही अवसर था। जब सशरीर कोई मानव इन्द्रपुरी पहुंचा हो। अर्जुन देवलोक में बड़े मजे से रहने लगे उन्होंने देवलोक में रहते हुए विविध-प्रकार की कलायें सीखीं। उन कलाओं में शस्त्र ज्ञान के अतिरिक्त नृत्य, वाद्य और संगीत भी शामिल था। यह एक संयोग ही था, जिन दिनों अर्जुन इन्द्रपुरी में रह रहे थे, उन्ही दिनों 'निवात' और 'कवच' नामक राक्षसों ने इन्द्रपुरी पर आक्रमण कर दिया। इन राक्षसों के हमलों से पहले भी, अनेक देवता परेशान रहा करते थे। देवताओं ने राक्षसों को हराने का कई बार प्रयत्न किया परन्तु हर बार असफल हो गए। अर्जुन ने अपने पराक्रम और दिव्यास्त्रों के प्रभाव से तुरन्त ही राक्षसों को पराजित कर दिया। पूरी इन्द्रपुरी में अर्जुन की प्रशंसा होने लगी। अर्जुन के स्वागत के लिए अमरावती में एक विशेष समारोह भी रखा गया। देवराज इन्द्र अर्जुन को अपने साथ लेकर सिंहासन पर विराजमान थे। एक के बाद एक अपसरायें आकर अपना नृत्य प्रदर्शित करती जा रही थीं। सभी लोग अर्जुन को प्रसन्न करने का प्रयास कर रहे थे। परन्तु अर्जुन को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उन्हें तो अपने भाईयों की याद आ रही थी, जो जंगलों में रहते हुए कन्दमूल खाकर जीवन गुजार रहे थे।
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