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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || ༺•|✤ MP_ASI_HINDI_TYPING ✤|•༻

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सिविल प्रक्रिया संहिता की योजना प्रथम अपीलीय न्‍यायालय द्वारा दिए गए तथ्‍य के निष्‍कर्षों को अंतिम रूप देती है। यह निस्‍संदेह विभिन्‍न प्रसिद्ध अपवादों के अधीन है, हालांकि, ये द्वितीय अपीलीय न्‍यायालय को निश्चित रूप से तथ्‍य के निष्‍कर्षों में हस्‍तक्षेप करने की अनुमति नहीं दे सकता है। इस तरह के प्रतिबंध उच्‍च न्‍यायालय पर इसलिए लगाए जाते हैं ताकि न्‍यायालयों के पदानुक्रम में एक विशेष स्‍तर पर मुकदमेबाजी को अंतिम रूप दिया जा सके। प्रथम अपीलीय न्‍यायालय के निर्णय में हस्‍तक्षेप करते हुए द्वितीय अपील में उच्‍च न्‍यायालय द्वारा शक्ति के प्रयोग की सीमा उच्‍च सार्वजनिक नीति पर आधारित है। इस सीमा को इस आवश्‍यकता पर जोर देकर सुरक्षित करने की मांग की गई है कि दूसरी अपील पर तभी विचार किया जाए तब कानून का पर्याप्‍त प्रश्‍न हो। इसलिए, कानून के पर्याप्‍त प्रश्‍न का अस्तित्‍व और निर्णय जो कानून के महत्‍वपूर्ण प्रश्‍नों के उत्‍तर देने के इर्द-गिर्द घूमता है, केवल औपचारिकताएं नहीं हैं, उनका पालन करने के लिए है। अदालत ने कहा कि प्रथम अपीलीय न्‍यायालय इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा है कि भारतीय सुगमता अधिनियम, 1882 की धारा 15 पर आधारित मामला नहीं बनता है। अदालत ने कहा 'सुगमता एक अधिकार है। यह विभिन्‍न प्रकार के सुखभोगों में से किसी के अंतर्गत सकता है, लेकिन उस अधिकार से कम, जिसे वादी के लिए स्‍थापित करना है, कोई प्राकृतिक अधिकार नहीं हो सकता क्‍योंकि यह दूसरे की संपत्ति का उपयोग करने के लिए था।' अदालत ने यह भी कहा कि कानून का महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न भी, जिसके बारे में कहा गया है कि इसे उच्‍च न्‍यायालय ने उस समय तैयार किया था जब दूसरी अपील स्‍वीकार की गई थी, वास्‍तव में यह कानून के एक महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न के रूप में अपील नहीं करता है। हालांकि यह सच हो सकता है कि शुरू में उच्‍च न्‍यायालय ने दूसरी अपील को स्‍वीकार करते हुए कानून का प्रश्‍न बनाया हो, लेकिन तत्‍काल मामले में निर्णय असमर्थनीय है।
    अभियुक्‍त के विरूद्ध भारतीय दण्‍ड संहिता की धारा 302, 324 सहपठित धारा 34 के अधीन प्रकरण विचाराधीन था। अभियोजन की ओर से अभियोजन साक्षियों का परीक्षण किया गया। इसके बाद अभियुक्‍त ने अभियोजन साक्षीगण अनन्‍तराम एवं रमेश को अग्रिम प्रतिपरीक्षण हेतु पुन: आहुत करने के लिए दण्‍ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 311 के अधीन आवेदन पत्र इस आधार पर प्रस्‍तुत किया कि वे मृतक के रिश्‍तेदार हैं और उन्‍हें चक्षुदर्शी साक्षी के रूप में मिथ्‍या साक्ष्‍य देने के लिए पुलिस द्वारा दबाव दिया गया था, जबकि वे घटना के समय मौका पर उपस्थित नहीं थे, इसलिए वे घटना के साक्षी नहीं हैं और इन परिस्थितियों में उन्‍होंने शपथ पत्र प्रस्‍तुत किया है कि वे मौका पर नहीं थे और उन्‍होंने पुलिस के दबाव में साक्ष्‍य दिया है। ऐसे स्थिति में साक्षीगण को प्रतिपरीक्षण के लिए पुन: आहुत किया जाना चाहिए। अभियोजन की ओर से अपने जवाब में आपत्ति की गई कि दोनों साक्षीगण ने अपने अभिसाक्ष्‍य में घटना को देखना अभिकथित किया है। बचाव पक्ष की ओर से साक्षीगण का समुचित प्रतिपरीक्षण किया जा चुका है, इसलिए आवेदन पत्र निरस्‍त किए जाने योग्‍य है। विचारण न्‍यायालय ने आरोपीगण पर विरचित आरोप पढ़कर सुनाये समझाये जाने पर, आरोपीगण ने जुर्म से इंकार किया। तत्‍पश्‍चात् विचारण न्‍यायालय ने साक्ष्‍य लेखबद्ध कर आरोपीगण को दोषसिद्ध पाते हुए दण्‍डादेश से दंडित किया। अपीलार्थी ने उक्‍त अपील प्रश्‍नगत दोषसिद्धि दण्‍डादेश से परिवेदित होकर इस आधार पर प्रस्‍तुत की है कि विचारण न्‍यायालय ने आरोपीगण/अपीलार्थीगण को दोषसिद्धि कारित कर वैधानिक त्रुटि कारित की है। विचारण न्‍यायालय ने साक्षीगण के बयानों का उचित विवेचन नहीं किया है। विचारण न्‍यायालय ने जिस लोहे के डंडे से मारपीट होना बताया है उसे प्रदर्श नहीं कराया है। स्‍वतंत्र साक्षीगण ने अभियोजन कहानी का समर्थन नहीं किया है। चिकित्‍सीय साक्ष्‍य से भी साक्षीगण की साक्ष्‍य का समर्थन नहीं होता है।  

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