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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा (म0प्र0) संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Oct 4th, 06:01 by rajni shrivatri
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भारत में शिक्षक ईश्वर तुल्य और उससे भी ऊपर रख कर स्मरण किया जाता है। गुरू की गरिमा और शिष्य के समर्पण की एक से बढ़ कर एक कहानियां जन-मानस और साहित्य में प्रचलित हैं जिन्हें पढ़-सुन कर मन श्रद्धा से भर उठता है। इस आदर्श छवि में गुरू स्वयं में एक संस्था है जो नि:स्पृह भाव से विद्यार्थी का हर तरह से मंगल चाहता है। वह अपने शिष्य से पराजय की कामना करता है। यानी चाहता है कि शिष्य गुरू से भी आगे निकल जाए। स्वतंत्रता मिलने के बाद दो दशकों तक समाज के लोग विद्यालयों का संचालन करते थे व कुछ सरकारी विद्यालय होते थे। शिक्षा समाज का स्वयं के प्रति नैतिक दायित्व था। शिक्षण संस्थाओं व शिक्षार्थियों का उद्देश्य मूलत: ज्ञान-सृजन और उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाना था। ऐसे में अध्यापन नौकरी न था, न ध्यापक अपने को वतेनभोगी मुलाजिम मानते थे। गुरू की गुरूता उसके श्रेष्ठ आचरण में थी। इनाक दायित्व अच्छे मनुष्य का निर्माण था जिसमें सद्गुण हों, जो देश और समाज के प्रति सद्भाव रखता हो। दूसरे शब्दों में कहें तो शिक्षा मूल्यों पर आधृत थी और अध्यापक उन मूल्यों का वाहक और संरक्षक होता था। अध्यापन व्यवसाय की सामाजिक साख ऊंची थी और कम वेतन होने पर भी उसका सम्मान अधिक था। समय बदला और अध्यापन, शिक्षक, विद्यालय सभी की दृष्टि बदलने लगी। गुणवत्ता बढ़ाने के लिए शिक्षक-प्रशिक्षण का काम शुरू हुआ। बीटीसी, एलटी, बीएड, बीएलएड और इसी तरह अनेक डिग्री डिप्लोमा की भरमार हो गई। इस समय देश में लगभग अट्ठारह हजार शिक्षा संस्थान इस तरह की शिक्षा दे रहे हैं। इनमें नब्बे प्रतिशत जिनती हैं जिनकी गुणवत्ता को लेकर हर तरह का संशय बना हुआ है। अध्यापक की नौकरी के लिए यह जरूरी है इसलिए अनियंत्रित रूप से शिक्षक-प्रशिक्षण का धंधा चल पड़ा है। इसकी नियामक संस्था एनसीटीई से बड़ी आशाएं थी पर सिर्फ मान्यता देने वाली तकनीकी संस्था बन कर रह गई है। आज तक समुचित मानक पा
ठ्यक्रम और उसके संचालन को लेकर बहुत-सा काम शेष है। इन सबके बीच अध्यापन अर्थकेंद्रित व्यवसाय का रूप लेता गया। ट्यूशन और कोचिंत का धंध प्रमुख होता गया। विद्यालय की पढ़ाई की उपेक्षा जो शुरू हुई, उससे विद्यालय का शैक्षिक परिवेश कमजोर होता जा रहा है। अब मान लिया गया है कि सिर्फ अवद्यालय की पढ़ाई अपर्याप्त है। कोचिंग अपरिहार्य हो गई। इसी प्रकार सरकारी स्कूल खस्ताहाल होते गए और प्राइवेट पब्लिक स्कूलों का उद्यम चल निकला जिसमें चमक-दमक है और जिसे व्यापार के तौर पर चलाया जा रहा है। इन सबके बीच मूल्य और चरित्र-निर्माण के सराेकार धूमिल होते जा रहे हैं। विद्या जगत से समाज में प्रकाश जाने पर जगह दुनियावी अंधकार शिक्षा के परिसर पर छाता जा रहा है। नई शिक्षा नीति मूल्य बोध को विकसित करने के संकल्प के साथ प्रस्तुत हुई है। इसमें शिक्षक-शिक्षा को व्यवस्थित करने और उसके व्यावसायिक स्वरूप को लेकर भी विचार किया गया है। शिक्षक ही शिक्षा की धुरी होता है और इसकी उपेक्षा करना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना होगा।
ठ्यक्रम और उसके संचालन को लेकर बहुत-सा काम शेष है। इन सबके बीच अध्यापन अर्थकेंद्रित व्यवसाय का रूप लेता गया। ट्यूशन और कोचिंत का धंध प्रमुख होता गया। विद्यालय की पढ़ाई की उपेक्षा जो शुरू हुई, उससे विद्यालय का शैक्षिक परिवेश कमजोर होता जा रहा है। अब मान लिया गया है कि सिर्फ अवद्यालय की पढ़ाई अपर्याप्त है। कोचिंग अपरिहार्य हो गई। इसी प्रकार सरकारी स्कूल खस्ताहाल होते गए और प्राइवेट पब्लिक स्कूलों का उद्यम चल निकला जिसमें चमक-दमक है और जिसे व्यापार के तौर पर चलाया जा रहा है। इन सबके बीच मूल्य और चरित्र-निर्माण के सराेकार धूमिल होते जा रहे हैं। विद्या जगत से समाज में प्रकाश जाने पर जगह दुनियावी अंधकार शिक्षा के परिसर पर छाता जा रहा है। नई शिक्षा नीति मूल्य बोध को विकसित करने के संकल्प के साथ प्रस्तुत हुई है। इसमें शिक्षक-शिक्षा को व्यवस्थित करने और उसके व्यावसायिक स्वरूप को लेकर भी विचार किया गया है। शिक्षक ही शिक्षा की धुरी होता है और इसकी उपेक्षा करना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना होगा।
