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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565

created Aug 16th, 07:01 by lovelesh shrivatri


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भगवान श्रीकृष्‍ण को हम मथुरा, वृंदावन, द्वारका या किसी मंदिर में स्‍थापित मूर्ति के  रूप में देखते है। गीता में वे स्‍वयं कहते है ईश्‍वर सर्वभूताना यानी ईश्‍वर प्रत्‍येक जीव के हृदय में स्थित है। यह श्‍लोक स्‍पष्‍ट करता है कि कृष्‍ण केवल बाहर की आराधना नहीं, भीतर की अनुभूति भी है। कृष्‍ण को समझने के लिए व्रत, उपवास या भजन काफी नहीं है, हमें अपने भीतर झांककर देखना होगा कि क्‍या हमने सत्‍य धर्म, प्रेम और करूणा जैसे गुणों को आत्‍मसात किया है? भीतर के कृष्‍ण को जीवित रखने का अर्थ है हमारे आचारण सोच और जीवनशैली में कृष्‍ण के गुणों को शामिल करना।  
श्रीकृष्‍ण जीवन भर संघर्षो से घिरे रहे, जन्‍म से कुरूक्षेत्र तक। उन्‍होंने कभी विवेक और संतुलन नहीं खोया। पूतना का वध हो या अर्जुन को धर्म का बोध कराना, हर मोड़ पर उन्‍होंने अपने विवेक का परिचय दिया। गीता में वे कहते है, योगस्‍थ: कुरू कर्माणि  अर्थात योगयुक्‍त होकर कर्म करो। इसका अर्थ हैं कि जीवन के हर कार्य में संयम और विवेक का उपयोग हो। आज तेजी से बदलते दौर में, जब हम भावनाओं में बहकर निर्णय लेते है, कृष्‍ण का संदेश और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है।  
श्रीकृष्‍ण ने कभी अर्जुन को युद्ध जीतने का वादा नहीं किया, बल्कि उन्‍होंने उसे सही दृष्टिकोण दिया। उन्‍होंने कहा, मा फलेषु कदाचन- कर्म करो, फल की चिंता मत करों। यह दर्शन आज की दुनिया में, जहां हर कोई त्‍वरित सफलता और स्‍वार्थ की पूर्ति चाहता है, वहां आत्‍मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है। जब हम अपने भीतर के मोह, क्रोध, लोभ, अहंकार को त्‍यागते हैं, तभी कृष्‍ण हमारे भीतर जीवंत हो सकते है।  
श्रीकृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी महज एक उत्‍सव नहीं, एक साधना है। यह वह दिन है जब हमें अपने भीतर यह सवाल उठाना चाहिए कि क्‍या हमारे विचार, कर्म और व्‍यवहार में आज भी कृष्‍ण मौजूद है? क्‍या हम संकट में गीता की शरण लेते है। क्‍या हम अपने जीवन में नीतियों और सिद्धांतों को उतार पाए है। इस जन्‍माष्‍टमी पर हमें संकल्‍प लेना चाहिए कि हम दूसरों को क्षमा करना सीखें, जैसे कृष्‍ण ने शिशुपाल को सौ अपराधों तक माफ किया था।  
श्रीकृष्‍ण का जीवन धार्मिक उपदेशों तक सीमित नहीं था। वे रास रचैया भी थे और रणभूमि के महान रणनीतिकार भी। वे संगीतज्ञ भी थे और कूटनीतिज्ञ भी। श्रीकृष्‍ण के भीतर प्रेम की ऊचाई थी, जहां उन्‍होंने राधा से आत्मिक प्रेम किया, तो वहीं वे राजधर्म निभाते हुए शिशुपाल जैसे शत्रु को भी सहन करते रहे। आज की पीढ़ी के लिए यह सीख अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण हैं कि जीवन केवल भावनाओं से बुद्धिमत्ता प्रेम और संलुलन से चलता है।  
आज जब दुनिया बाहरी चकाचौंध, बाजारवाद, संघषों से भरी है, तब श्रीकृष्‍ण के अंदरूनी दर्शन को अपनाना अनिवार्य हो जाता है। यही दर्शन दुनिया को बचाए रखने और उसे सुंदर बनाए रखने में मदद करता है। आप भी श्रीकृष्‍ण भक्‍त है, तो उनको केवल मधुरा-वृंदावन या अन्‍य मंदिरों में खोजे, उन्‍हें अपने विचारों आचरण और कर्मो में उतारे। हर साल श्रीकृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी हमें यह अवसर देती है कि हम अपने भीतर के कृष्‍ण को पहचानें।  
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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