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CPCT-UMARIA (RAM-JINDGI)
created Feb 19th, 09:41 by Ramnaresh Patel AYAMRAM
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गीता के ग्यारहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बार-बार बल दिया है कि अर्जुन मेरा यह स्वरूप जिसे तूने देखा, तेरे शिवाय न पहले कभी किसी के द्वारा देखा गया है, न ही भविष्य में देखा जायेगा। मैं न तप से, न यज्ञ से और न दान से ही देखे जाने को सुलभ हूँ; किन्तु अन्नय भक्ति के द्वारा अर्थात् मेरे अतिरिक्त अन्यत्र कहीं श्रद्धा बिखरने न पाये, निरन्तर तैलधारावत् मेरे चिन्तन के द्वारा ठीक इसी प्रकार जैसा तूने देखा, मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए, तत्व से साक्षात् जानने के लिये और प्रवेश करने के लिये भी सुलभ हूँ। अत: अर्जुन निरन्तर मेरा ही चिन्स्तन कर, भक्त बन। अर्जुन तू मेरे ही द्वारा निर्धारित किये गये कर्म को कर। अपितु मेरे परायण होकर कर।अनन्य भक्ति ही उनकी प्राप्ति का माध्यम है। इस पर अर्जुन का प्रश्न स्वाभाविक है कि जो अव्यक्त अक्षर की उपासना करते हैं और सगुण आपकी उपासना करते हैं, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है।
यहॉं इस प्रश्न को अर्जुन ने तीसरी बार उठाया है। अध्याय तीन में उसने कहा- भगवन् यदि निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा सांख्ययोग आपको श्रेष्ठ मान्य है, तो आप मुझे भयंकर कर्मों में क्यों लगाते हैं। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन निष्काम कर्ममार्ग अच्छा लगे चाहे ज्ञानमार्ग, दोनों ही दृष्टियों से कर्म तो करना ही पड़ेगा। इतने पर भी जो इन्द्रियों को हठ से रोककर मन से विषयों का स्मरण करता है वह दम्भचारी है, ज्ञानी नहीं। अत: अर्जुन तू कर्म कर। कौन-सा कर्म करें, तो- निर्धारित किये हुए कर्म को कर। निर्धारित कर्म क्या है। तो बताया- यज्ञ की प्रक्रिया ही एकमात्र कर्म है। यज्ञ की विधि को बताया, जो अराधना-चिन्तन की विधि-विशेष है, परम में प्रवेश दिलानेवाली प्रक्रिया है। जब निष्काम कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों में ही कर्म करना है, यज्ञार्थ कर्म करना है, क्रिया एक ही है तो अन्तर कैसा। भक्त कर्मो का समर्पण करने इष्ट के आश्रित होकर यज्ञार्थ कर्म में प्रवृत्त होता है, तो दूसरा सांख्योगी अपनी शक्ति को समझकर (अपने भरोसे) उसी कर्म में प्रवृत्त होता है, पूरा श्रम करता है।
अध्याय पॉंच में अर्जुन ने पुन: प्रश्न किया- भगवन् आप कभी सांख्य-माध्यम से कर्म करने की प्रशंसा करते हैं, तो कभी समर्पण-माध्यम से निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं- इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है। यहॉं तक अर्जुन समझ चुका है कि कर्म दोनों दृष्टियों से करना होगा, फिर भी दोनों मे श्रेष्ठ मार्ग वह चुनना चाहता है। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन दोनों ही दृष्टियों से कर्म में प्रवृत्त होनेवाले मुझको ही प्राप्त होते हैं; किन्तु सांख्यमार्ग की अपेक्षा निष्काम कर्ममार्ग श्रेष्ठ है। निष्काम कर्मयोग का अनुष्ठान किये बिना न काई योगी होता है और न ज्ञानी। सांख्योग दुष्कर है, उसमें कठिनाईयॉं अधिक है।
यहॉं तीसरी बार अर्जुन ने यही प्रश्न रखा कि- भगवन् आपमें अनन्य भक्ति से लगनेवाले और अव्यक्त अक्षर की उपसना से लगने वाले, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है। अर्जुन मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मुझसे संयुक्त हुए जो भक्तजन परम से सम्बन्ध रखनेवाली श्रेष्ठ श्रध्दा से युक्त होकर मुझे भजते हैं, वे मुझे योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य है।
यहॉं इस प्रश्न को अर्जुन ने तीसरी बार उठाया है। अध्याय तीन में उसने कहा- भगवन् यदि निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा सांख्ययोग आपको श्रेष्ठ मान्य है, तो आप मुझे भयंकर कर्मों में क्यों लगाते हैं। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन निष्काम कर्ममार्ग अच्छा लगे चाहे ज्ञानमार्ग, दोनों ही दृष्टियों से कर्म तो करना ही पड़ेगा। इतने पर भी जो इन्द्रियों को हठ से रोककर मन से विषयों का स्मरण करता है वह दम्भचारी है, ज्ञानी नहीं। अत: अर्जुन तू कर्म कर। कौन-सा कर्म करें, तो- निर्धारित किये हुए कर्म को कर। निर्धारित कर्म क्या है। तो बताया- यज्ञ की प्रक्रिया ही एकमात्र कर्म है। यज्ञ की विधि को बताया, जो अराधना-चिन्तन की विधि-विशेष है, परम में प्रवेश दिलानेवाली प्रक्रिया है। जब निष्काम कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों में ही कर्म करना है, यज्ञार्थ कर्म करना है, क्रिया एक ही है तो अन्तर कैसा। भक्त कर्मो का समर्पण करने इष्ट के आश्रित होकर यज्ञार्थ कर्म में प्रवृत्त होता है, तो दूसरा सांख्योगी अपनी शक्ति को समझकर (अपने भरोसे) उसी कर्म में प्रवृत्त होता है, पूरा श्रम करता है।
अध्याय पॉंच में अर्जुन ने पुन: प्रश्न किया- भगवन् आप कभी सांख्य-माध्यम से कर्म करने की प्रशंसा करते हैं, तो कभी समर्पण-माध्यम से निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं- इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है। यहॉं तक अर्जुन समझ चुका है कि कर्म दोनों दृष्टियों से करना होगा, फिर भी दोनों मे श्रेष्ठ मार्ग वह चुनना चाहता है। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन दोनों ही दृष्टियों से कर्म में प्रवृत्त होनेवाले मुझको ही प्राप्त होते हैं; किन्तु सांख्यमार्ग की अपेक्षा निष्काम कर्ममार्ग श्रेष्ठ है। निष्काम कर्मयोग का अनुष्ठान किये बिना न काई योगी होता है और न ज्ञानी। सांख्योग दुष्कर है, उसमें कठिनाईयॉं अधिक है।
यहॉं तीसरी बार अर्जुन ने यही प्रश्न रखा कि- भगवन् आपमें अनन्य भक्ति से लगनेवाले और अव्यक्त अक्षर की उपसना से लगने वाले, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है। अर्जुन मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मुझसे संयुक्त हुए जो भक्तजन परम से सम्बन्ध रखनेवाली श्रेष्ठ श्रध्दा से युक्त होकर मुझे भजते हैं, वे मुझे योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य है।
