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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565

created Dec 10th, 04:15 by lucky shrivatri


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प्रकृति हमें सब कुछ देती हैं। यह भी सच है कि प्रकृति से खिलवाड़ करने पर उसका कोपभाजन भी बनना पड़ता हैं। इंसान खुद में तब तक ही परिपूर्ण होता है जब तक वह मर्यादाओं को अतिक्रमण नहीं करता। जो मर्यादाओं का उल्‍लंघन करता है। वह पशुओं की श्रेणी में आता हैं। सच यह भी है कि मन की इच्‍छा से ही मानव अतिक्रमण करता हैं। केवल  अतिक्रमण करता हैं। बल्कि नकल भी करता हैं। मानव बुद्धि और मन सही दिशा में काम करे तो उसे जड़ता की ओर जाने से रोक सकती हैं। अन्‍यथा कहते भी हैं क‍ि मूर्खों की संपत्ति का उपयोग बुद्धिमान ही किया करते हैं। सत्ताधीशों के राजनीतिक कुचक्र से घिरा हुआ किसी भी देश का प्रज्ञाबल कितना ही साधन सम्‍पन क्‍यों नहीं हो वह योग-क्षेम के लिए लाभ नहीं उठा सकता। चिंता इस बात की ही है कि आज की शिक्षा भी हमें संस्‍कृति से दूर कर नकलची बनाती जा रही हैं। इच्‍छा भी प्रकृति ही पैदा करती है और मन कर्म को प्रेरित होता है। इच्‍छा ही जीवन का आधार हैं। यही प्रकृति का रूप हैं। पुरुष-प्रकृति मिलकर जीवन हैं। मूल में पुरुष आत्‍मरूप हैं और प्रकृति कर्मरूप। प्रारब्‍धजनित कर्मों का क्षेत्र सभी प्राणियोें में प्रकृति  नियंत्रित ही है जहां मनुष्‍य-पशु-पक्षी-कृमि-कीट सभी समान हैं। दूसरी और स्‍वच्‍छन्‍दता केवल मनुष्‍य का क्षेत्र हैं। उसे उचित-अनुचित की परवाह नहीं रहती। सिर्फ दृष्टि उसी पर होती हैं, जिसकी नकल करते हैं। श्रेय और हेय का भेद समाप्‍त हो गया। शिक्षा ने आत्‍मचिंतन के द्वार ही बंद कर दिए क्‍योंकि जिनकी नकल कर रहे हैं। वहां आत्‍मा जीवनशैली में नजर ही नहीं आता। सही अर्थों में शिक्षा ने प्रकृति के स्‍वरूप  को जीवन से बाहर कर दिया और स्‍वयं ही माया बन कर बैठ गई। इस माया का ब्रह्म से संबंध ही नहीं। तब किसकी माया? मौजूदा शिक्षा प्रणाली में नकल की प्रवृत्ति और कृत्रिम विकास की होड़ करते हुए हम प्रकृति के नियमों की अवहेलना में लगे हैं। नकल से विचार विकृत होते हैं। और विकास अवरुद्ध होता हैं, इस गूढ़ रहस्‍य समझने की परवाह किसी को  नहीं। कहना होगा, कि विज्ञान के अविष्‍कारों ने ही महत्‍वाकांक्षाओं को गति दी हैं। आगे बढ़ने की होड़ में प्रकृति के नियम पीछे छुट गए लगते हैं। आजादी के बाद वर्णसंकरता  का ऐसा दौर चला हैं,जिसमें संस्‍कृति आधारित परम्‍पराओं, त्‍यौहार अनुष्‍ठानों  को परे किया जा रहा है। आज की शिक्षा ने सारी समस्‍याओं को ही समाप्‍त कर दिया। कोई धर्म,   वर्ण, गुण। सभी देश समान रूप मे स्‍वच्‍छन्‍द और मर्यादामुक्‍त हो गए। ऐसा लगता है कि सुखों से भरे विश्‍व में शांति उजड़ गई। असंयत विकास से अशांत और सुखों के पीछे भागने वाली पीढ़ी हो रही हैं। भोग की सस्‍कृतिं ने मानव समाज को ही भोग की वस्‍तु बना दिया है।       

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