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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565

created Yesterday, 06:48 by rajni shrivatri


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सदियों से सर्वविदित है कि भाषा ही घर,समाज और संस्‍कृति की धुरी है और जीवन के प्रत्‍येक क्षण को ही नहीं, अवचेतन मन को भी भाषा प्रभावित करती है। भाषा का समुचित ज्ञान, मानव संवाद के लिए अति आवश्‍यक है, क्‍योंकि इससे भावनाओं और विचारों को व्‍यक्‍त करने में आसानी होती है और समाज को संस्‍कृति और संस्‍कार मिले हैं। भारत सार्वजनिक एवं राजकीय आयोजनों अक्‍सर हिन्‍दी को वह यथोचित सम्‍मान नही मिलता, जिसका इस राष्‍ट्रभाषा को अधिकार है। यह देख कर बहुत पीड़ा होती है। यह बात समझ से परे है कि जो सरकार हिन्‍दी अपनाने का केवल आग्रह करती है, बल्कि प्रति वर्ष 14 सितम्‍बर को हिन्‍दी दिवस भी मनाती है, क्‍यों अपनी कार्यशैली में हिंदी का निरंतर तिरस्‍कार करती है? सरकार की कथनी और करनी के अन्‍तर पर मनन करें, तो पाएंगे कि हिन्‍दी भाषी लोग ही हिन्‍दी के सबसे बड़े दुश्‍मन हैं। चूंकि अधिकारी वर्ग इन्‍हीं लोगों का प्रतिनिधित्‍व करता है, इसलिए हिन्‍दी से सौतेला व्‍यवहार निश्चित हो जाता है। हमारे देश में प्रत्‍येक दिन हिन्‍दी के साथ बुरा बर्ताव होता, क्‍योंकि हिन्‍दी का पाठक तो हिन्‍दी का समर्थन करता है, ही हिन्‍दी की किताब खरीद कर पढ़ना चाहता है। हिन्‍दी भाषी पाठक हीन भावना से ऐसा ग्रसित रहता है कि किसी के सम्‍मुख हिन्‍दी की पुस्‍तक भी नहीं खोलता, बल्कि बेवजह अंग्रेजी में मुंह मारता रहता है। यही वजह है कि हिन्‍दी की साहित्यिक स्‍मृतियों की बिक्री नगण्‍य सी हो गई है। हिन्‍दी की विशिष्‍ट पत्रिकाएं 'धर्मयुग', 'दिनमान', 'माधुरी', 'कादंबिनी' आदि ने पाठक की उपेक्षा के कारण दम तोड़ दिया है। दूसरी तरफ अंगेजी की फूहड़ से फूहड़ पत्रिका भी फल-फूल रही है, क्‍योंकि अंग्रेजी की दासता हमारी मानसिक कमजोरी है।इसी कारण, हिन्‍दी नाटक और साहित्यिक सम्‍मेलन भी दर्शकों के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, जबकि अंग्रेजी के आयोजनों में बेजोड़ भीड़ होती है। हिन्‍दी की प्रतिष्‍ठा को ठेस पहुंचाने में मीडिया का हाथ भी कम नहीं है। हिन्‍दी के समाचार पत्र, रेडियो और टीवी चैनलों में आज जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा की शब्‍दावली का बेवजह इस्‍तेमाल हो रहा है, वह निकृष्‍टता की पराकाष्‍ठा है। निजी टीवी और रेडियो प्रसारण को छोडिए, जिस आकाशवाणी और दूरदर्शन को एक समय हिन्‍दी के व्‍याकरण और उच्‍चारण्‍ का पर्याय माना जाता था, वहां भी उद्घोषकों और विशेषज्ञों द्वारा प्रतिदिन हिन्‍दी की जो दुर्गति की जाती है, वह वाकई चिंताजनक है। इस बीच घने अंधकार में भी एक स्‍वर्णिम प्रकाश का आभास होता है और वह यह कि आज देश ही नहीं, सम्‍पूर्ण विश्‍व में हिन्‍दी भषा की ओर रुझान बढ़ रहा है। भरत के सभी प्रांतों के लोग आज हिन्‍दी बोलते और समझते हैं और हिन्‍दही में संवाद करते हैं। लेकिन, उसकी व्‍यापक और सामाजिक स्‍वीकृति तभी होगी, जब संकीर्ण सोच वाले हिन्‍दी को एक समूह विशेष की भाषा बताना बंद कर देंगे। सभी भाषाएं सम्‍माननीय हैं और सभी हमारी गंगा-जमुनी संस्‍कृति का हिस्‍सा हैं। चूँकि हिन्‍दी भाषा से राष्‍ट्र की एक विशिष्‍ट पहचान जुड़ी हुई है, इसलिए राष्‍ट्रभाषा की गरिमा और संरक्षण का हमें विशेष ध्‍यान रखना होगा। हमें रूस, चीन, जर्मनी जैसे देखों से सीखना होगा, जो अपनी भाषा के उपयोग से हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहे हैं।  

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