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Malti Computer Center Tikamgarh
created Nov 13th, 02:33 by Ram999
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भारत में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के संवैधानिक संरक्षण के अधिकार को लेकर अक्सर यह सवाल उठता है कि किसी संस्था का ‘अल्पसंख्यक चरित्र’ कैसे निर्धारित किया जाए। पूर्व के निर्णयों के आधार पर और अपने खुद के मूल्य में इजाफा करते हुए, सुप्रीम कोर्ट की सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 4:3 के बहुमत से, एक अल्पसंख्यक संस्थान की पहचान के लिए जरूरी ‘संकेत’ निर्धारित किए हैं। सबसे ज्यादा ध्यान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) पर रहा है, जिसे इस फैसले से अपने अल्पसंख्यक चरित्र को सही ठहराने के प्रयासों में फायदा मिलेगा। लेकिन सिर्फ एक नियमित पीठ ही इसकी स्थिति पर फैसला करेगी। एएमयू का चरित्र अनूठा है: इसकी स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान द्वारा मुस्लिम विद्यार्थियों के फायदे के लिए एक शिक्षण कॉलेज के रूप में की गई थी और 1920 में केंद्रीय विधानमंडल के एक अधिनियम के जरिए इसे एक विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता दी गई थी। संविधान में, इसे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के साथ राष्ट्रीय महत्व की एक संस्था के रूप में संदर्भित किया गया था। सन् 1967 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में कहा गया था कि यह अनुच्छेद 30(1) के तहत एक अल्पसंख्यक संस्थान होने के लाभ का हकदार नहीं है, क्योंकि इसकी स्थापना कानून के जरिए की गई थी, न कि मुस्लिम समुदाय द्वारा। सन् 1981 में एएमयू अधिनियम में लाए गए संशोधनों ने कुछ परिभाषाओं को बदलकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के महत्व को कम करने की कोशिश की। केंद्र की वर्तमान सरकार ने अदालत में तर्क दिया कि यह एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
एक तर्कसंगत फैसले में, (अब पूर्व) भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सही निर्णय दिया है कि विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने के वास्ते एक कानून बनाए जाने का तथ्य पहले से मौजूद एक संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को नहीं खत्म करेगा और किसी संस्थान की स्थिति की पहचान करने के मुख्य मानदंड कुछ विवरणों पर आधारित होंगे। मसलन इसकी स्थापना किसने की, इसे अस्तित्व में लाने के लिए किसने प्रयास किए, इसका मकसद उस विशेष अल्पसंख्यक समुदाय के हितों को बढ़ावा देना था या नहीं और इसकी प्रशासनिक संरचना ने इसके अल्पसंख्यक चरित्र की पुष्टि की है या नहीं। इसके अलावा, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 के पारित होने से पहले किसी भी विश्वविद्यालय को शामिल करने के लिए एक कानून की आवश्यकता थी और यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि कोई संस्थान अपनी डिग्री को मान्यता हासिल करने के बदले में अपना संवैधानिक अधिकार छोड़ देता है। कम से कम एक असहमत न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने कहा कि एएमयू एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। इस चर्चा का एक पहलू एएमयू में आरक्षण की गुंजाइश है। अगर इसके अल्पसंख्यक चरित्र को खत्म कर दिया जाए, तो इसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को दिए जाने वाले आरक्षण के दायरे में लाया जा सकता है। क्या राष्ट्रीय महत्व के किसी संस्थान को अल्पसंख्यक टैग की जरूरत है, यह एक वैध सवाल है। लेकिन यह भी उतनी ही चिंता का विषय है कि एक विशिष्ट शैक्षिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के लिए पहचाने जाने वाले एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से उसका मूल चरित्र छीन लिया जाए। संदर्भ की किसी भी भावना से रहित एक अनैतिहासिक परिप्रेक्ष्य बेमतलब है।
एक तर्कसंगत फैसले में, (अब पूर्व) भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सही निर्णय दिया है कि विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने के वास्ते एक कानून बनाए जाने का तथ्य पहले से मौजूद एक संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को नहीं खत्म करेगा और किसी संस्थान की स्थिति की पहचान करने के मुख्य मानदंड कुछ विवरणों पर आधारित होंगे। मसलन इसकी स्थापना किसने की, इसे अस्तित्व में लाने के लिए किसने प्रयास किए, इसका मकसद उस विशेष अल्पसंख्यक समुदाय के हितों को बढ़ावा देना था या नहीं और इसकी प्रशासनिक संरचना ने इसके अल्पसंख्यक चरित्र की पुष्टि की है या नहीं। इसके अलावा, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 के पारित होने से पहले किसी भी विश्वविद्यालय को शामिल करने के लिए एक कानून की आवश्यकता थी और यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि कोई संस्थान अपनी डिग्री को मान्यता हासिल करने के बदले में अपना संवैधानिक अधिकार छोड़ देता है। कम से कम एक असहमत न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने कहा कि एएमयू एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। इस चर्चा का एक पहलू एएमयू में आरक्षण की गुंजाइश है। अगर इसके अल्पसंख्यक चरित्र को खत्म कर दिया जाए, तो इसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को दिए जाने वाले आरक्षण के दायरे में लाया जा सकता है। क्या राष्ट्रीय महत्व के किसी संस्थान को अल्पसंख्यक टैग की जरूरत है, यह एक वैध सवाल है। लेकिन यह भी उतनी ही चिंता का विषय है कि एक विशिष्ट शैक्षिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के लिए पहचाने जाने वाले एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से उसका मूल चरित्र छीन लिया जाए। संदर्भ की किसी भी भावना से रहित एक अनैतिहासिक परिप्रेक्ष्य बेमतलब है।
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