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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Nov 9th, 04:44 by lovelesh shrivatri
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तारीख पर तारीख का दौर भारतीय न्याय व्यवस्था में नया नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण सामने आते रहे है जिनमें मुकदमेबाजी का सामना करते हुए पीढिया खप जाती है लेकिन न्याय की उम्मीदें पता नहीं किस संदूक में बंद रहती है। बड़ी चिंता तो तब होती है जब सरकार खुद ही लोगों को मुकदमों के फेर में उलझाए रहती है। कहीं मुआवजे को लेकर कहीं नौकरी के हक को लेकर तो कहीं अवमानना के मामलों में फरियाद करने वालों को भी ऐसी ही तारीखों का सामना करना पड़ता है।
सुधार के तमाम उपायों के बावजूद लंबित मुकदमों का बोझ बढ़ाती जा रही है इस समस्या का निदान करना केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों के लिए भी बड़ी चुनौती है। ताजा मामला रेलवे से जुडा है जिसमें रेलवे समपार फाटक पार करते वक्त हादसे में जान गंवा बैठे ट्रक के खलासी के परिजनों को 44 साल बाद मुआवजा मिला है। वहां भी बॉम्बे हाईकोर्ट के निर्देश पर। समुचित संचार व्यवस्था के अभाव में फाटक खुला रहने से वर्ष 1987 में एक ट्रक रेल इंजन से टकरा गया था। हादसे में ट्रक खलासी की गंभीर रूप से घायल होने के बाद मौत हो गई थी। सिस्टम से जुड़ी तमाम खामियां कोर्ट में साबित होने के बावजूद रेलवे ने मृतक के परिजनों को 51 हजार रूपए का मुआवजा देने के सिविल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी और 44 साल तक मुकदमा लड़ता रहा। बॉम्बे हाईकोर्ट ने अब जाकर मृतक की मां को 51 हजार रूपए का मुआवजा देने का आदेश दिया है। यह तो एक बानगी है न जाने ऐसे कितने ही मुकदमे देश की अदालतों में लंबित होंगे। जिनका निस्तारण त्वरित रूप से हो सकता है पर जब सरकारें ही पार्टी बनकर आगे आ जाए तो किसे कहें। पिछले साल अप्रैल में ही देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में इस मुद्दे पर चिंता जताई थी। रमना ने कहा था कि सरकारें देश में सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। वे 50 फीसदी से ज्यादा मामलों में पक्षकार है और कई बार सरकारें ही मामलों को जानबूझ कर अटकाती है।
सुधार के तमाम उपायों के बावजूद लंबित मुकदमों का बोझ बढ़ाती जा रही है इस समस्या का निदान करना केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों के लिए भी बड़ी चुनौती है। ताजा मामला रेलवे से जुडा है जिसमें रेलवे समपार फाटक पार करते वक्त हादसे में जान गंवा बैठे ट्रक के खलासी के परिजनों को 44 साल बाद मुआवजा मिला है। वहां भी बॉम्बे हाईकोर्ट के निर्देश पर। समुचित संचार व्यवस्था के अभाव में फाटक खुला रहने से वर्ष 1987 में एक ट्रक रेल इंजन से टकरा गया था। हादसे में ट्रक खलासी की गंभीर रूप से घायल होने के बाद मौत हो गई थी। सिस्टम से जुड़ी तमाम खामियां कोर्ट में साबित होने के बावजूद रेलवे ने मृतक के परिजनों को 51 हजार रूपए का मुआवजा देने के सिविल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी और 44 साल तक मुकदमा लड़ता रहा। बॉम्बे हाईकोर्ट ने अब जाकर मृतक की मां को 51 हजार रूपए का मुआवजा देने का आदेश दिया है। यह तो एक बानगी है न जाने ऐसे कितने ही मुकदमे देश की अदालतों में लंबित होंगे। जिनका निस्तारण त्वरित रूप से हो सकता है पर जब सरकारें ही पार्टी बनकर आगे आ जाए तो किसे कहें। पिछले साल अप्रैल में ही देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में इस मुद्दे पर चिंता जताई थी। रमना ने कहा था कि सरकारें देश में सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। वे 50 फीसदी से ज्यादा मामलों में पक्षकार है और कई बार सरकारें ही मामलों को जानबूझ कर अटकाती है।
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