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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Nov 4th, 04:38 by lucky shrivatri
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किसी भी संतान से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह अपने माता-पिता की उपेक्षा करे। कानून भी इसकी इजाजत नहीं देता। लेकिन भागमभाग वाली जिंदगी और दूसरे कारणों से संतानें माता-पिता से दूरियां भी बनने लगी है। शासद इसी बात का ध्यान में रखते हुए असम सरकार ने अपने कार्मिकों को अपने माता पिता या सास-ससुर के साथ वक्त बिताने के लिए दो दिन का अवकाश देने का अनूठा फैसला किया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि ये विशेष छुट्टियां संबंधित अपने मनोरंजन के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकेगा। ये छ़ट्टियां नवम्बर में पहले से तय अवकाशों के साथ दी गई है ताकि ज्यादा समय तक माता-पिता का साथ मिल सके।
यह सच है कि आज की दौड़ती भागती जिंदगी में किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। नौकरी के लिए लोगों को अपने माता पिता से भी दूर रहना पड़ता है। दुट्टियां कम मिलने से वे अपने माता पिता के साथ वक्त नहीं गुजार पाते। इस लिहाज से सरकार का फैसला उचित ही लगता है। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि कई लोग अपने माता पिता के साथ रहते है, लकिन उनका अपने माता पिता के साथ सही व्यवहार नहीं है। कई जानबूझकर अपने माता पिता से दूर रहते है। बड़ी संख्या में माता पिता अपने बच्चों से उपेक्षित और प्रताडि़त हो रहे है। वरिष्ठ नागरिक की ओर से अपनी संतानों के बर्ताव को लेकर अदालतों तक में पहुंचने वाले मामले तो वे है, जहां इस उत्पीड़न की इंतहा होने होती है। माता पिता को जीवन के अंतिम पड़ाव में संतानों की जरूरत ज्यादा होती है। यह सच है कि उन्हें सुख सुविधाओं की दरकार इतनी नहीं होती। बस वे तो सिर्फ इनता चाहता कि उनकी सामान्य देखभाल होती रहे। उनके खान-पान व वक्त जरूरत पर उपचार और दवाइयों को इंतजाम हो जाए, लेकिन जो मामले सामने आ रहे है, उनमें यह तस्वीरर भी दिखाती है कि खुद ही सम्पन्न हो लेकिन बच्चों को अपने माता पिता को यह मुट्ठी भर सुख भी गवारा नहीं होता। हालांकि सभी मामलों में ऐसा नहीं होता। लोकलाज के डर से अधिकांश माता-पिता तो अपनी संतानों की उपेक्षा को भी नियति समझ कर चुप्पी साध लेते है। साफ है कि भरण-पोषण को लेकर बने सख्त कानून कायदों का भी डर नहीं है। ऐसे मामलों में असम सरकार का ताजा फैसला बुजुर्गो की कोई मदद नहीं कर पाएगा। हां, कमाने खाने कहीं दूर गए व कामकाज की व्यस्तता की वजह से घर नहीं आने वाले ऐसे सरकारी कार्मिक को जरूर मदद मिल सकती है, जो अपनी जिम्मेदारी समझते है।
यह सच है कि आज की दौड़ती भागती जिंदगी में किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। नौकरी के लिए लोगों को अपने माता पिता से भी दूर रहना पड़ता है। दुट्टियां कम मिलने से वे अपने माता पिता के साथ वक्त नहीं गुजार पाते। इस लिहाज से सरकार का फैसला उचित ही लगता है। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि कई लोग अपने माता पिता के साथ रहते है, लकिन उनका अपने माता पिता के साथ सही व्यवहार नहीं है। कई जानबूझकर अपने माता पिता से दूर रहते है। बड़ी संख्या में माता पिता अपने बच्चों से उपेक्षित और प्रताडि़त हो रहे है। वरिष्ठ नागरिक की ओर से अपनी संतानों के बर्ताव को लेकर अदालतों तक में पहुंचने वाले मामले तो वे है, जहां इस उत्पीड़न की इंतहा होने होती है। माता पिता को जीवन के अंतिम पड़ाव में संतानों की जरूरत ज्यादा होती है। यह सच है कि उन्हें सुख सुविधाओं की दरकार इतनी नहीं होती। बस वे तो सिर्फ इनता चाहता कि उनकी सामान्य देखभाल होती रहे। उनके खान-पान व वक्त जरूरत पर उपचार और दवाइयों को इंतजाम हो जाए, लेकिन जो मामले सामने आ रहे है, उनमें यह तस्वीरर भी दिखाती है कि खुद ही सम्पन्न हो लेकिन बच्चों को अपने माता पिता को यह मुट्ठी भर सुख भी गवारा नहीं होता। हालांकि सभी मामलों में ऐसा नहीं होता। लोकलाज के डर से अधिकांश माता-पिता तो अपनी संतानों की उपेक्षा को भी नियति समझ कर चुप्पी साध लेते है। साफ है कि भरण-पोषण को लेकर बने सख्त कानून कायदों का भी डर नहीं है। ऐसे मामलों में असम सरकार का ताजा फैसला बुजुर्गो की कोई मदद नहीं कर पाएगा। हां, कमाने खाने कहीं दूर गए व कामकाज की व्यस्तता की वजह से घर नहीं आने वाले ऐसे सरकारी कार्मिक को जरूर मदद मिल सकती है, जो अपनी जिम्मेदारी समझते है।
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