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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Jul 3rd, 05:05 by lucky shrivatri
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चुनावों के बाद जैसी उम्मीद की जा रही थी, लगता है हमारे लोकतंत्र की गाड़ी उस दिशा में नहीं जा रही। उम्मीद यह की जा रही थी कि लोकसभा चुनावों में जनादेश का सम्मान करते हुए पक्ष-प्रतिपक्ष मिलकर संसदीय परंपराओं को आगे ले जाने की दिशा में बढ़ेगे। लेकिन राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सोमवार को लोकसभा में जो कुछ हुआ उससे तो लगता है कि संसद में पक्ष-प्रतिपक्ष में टकराव के नए दरवाजे खुल रहे है।
धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रतिपक्ष के नेता के तौर पर पहली बार बोलते हुए राहुल गांधी ने कुछ ऐसे मुद्दे उठाए जिनसे बचा जा सकता था। बीस साल से सांसद के रूप में सदन का हिस्सा बन रहे राहुल ने स्पीकर ओम बिरला तक को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। भगवान शिव की तस्वीर दिखाकर उन्होने मामले को दूसरी दिशा में मोड़ने की कोशिश भी की। सवाल यह उठता है कि राजनीतिक मुद्दों के बीच में लाने के बजाय क्या यह उचित नहीं था कि राहुल गांधी धन्यवाद के केन्द्र में ही अपनी बात रखते। वैसे भी राजनीतिक मुद्दों पर बोलने के लिए राहुल के पास भी पूरे पांच साल का समय है। यह बात सही है कि राहुल के भाषण को लेकर राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से अलग-अलग निहितार्थ निकालेंगे। इस मुद्दे पर आने वाले दिनों में राजनीति भी गरमाएगी। लेकिन क्या यह राजनीति इस समय प्रासंगिक मानी जा सकती है? वह भी जब बीते छह महीने से देश राजनीति के दांवपेंच ही देखता आ रहा है। इन दांवपेंचों को देख-परखकर ही सभी दलों काो जनादेश मिला है। जनादेश एनडीए के सत्ता में और इंडिया गठबंध के विपक्ष में बैठने के लिए है। विपक्ष को पूरा अधिकार है कि वह मुद्दों के आधार पर सत्ता पक्ष को सदन से लेकर सड़क तक घेरे। पर राहुल को बिना सोचे समझे कुछ भी बोलने की आदत हो गई है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के बारे में टिप्पणी करते समय सतर्कता बरतने की जरूरत है।
लोकतंत्र में सरकारें आती है जाती है, लेकिन संसदीय परंपराएं और मर्यादा अक्षुण्ण रहती है। हम इसलिए सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश है क्योंकि हमने लोकतांत्रिक परंपराओं को साल दर साल संपन्न किया है। चुनाव में कोई भी जीता हारा, सत्ता हस्तांतरण आसानी से हुआ। दुनिया के मुकाबले हमारा लोकतंत्र जीवंत भी है और पारदर्शी भी। उम्मीद हैं कि सभी पक्ष लोकतंत्र को और मजबूत बनाने में भागीदार बनेंगे।
धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रतिपक्ष के नेता के तौर पर पहली बार बोलते हुए राहुल गांधी ने कुछ ऐसे मुद्दे उठाए जिनसे बचा जा सकता था। बीस साल से सांसद के रूप में सदन का हिस्सा बन रहे राहुल ने स्पीकर ओम बिरला तक को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। भगवान शिव की तस्वीर दिखाकर उन्होने मामले को दूसरी दिशा में मोड़ने की कोशिश भी की। सवाल यह उठता है कि राजनीतिक मुद्दों के बीच में लाने के बजाय क्या यह उचित नहीं था कि राहुल गांधी धन्यवाद के केन्द्र में ही अपनी बात रखते। वैसे भी राजनीतिक मुद्दों पर बोलने के लिए राहुल के पास भी पूरे पांच साल का समय है। यह बात सही है कि राहुल के भाषण को लेकर राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से अलग-अलग निहितार्थ निकालेंगे। इस मुद्दे पर आने वाले दिनों में राजनीति भी गरमाएगी। लेकिन क्या यह राजनीति इस समय प्रासंगिक मानी जा सकती है? वह भी जब बीते छह महीने से देश राजनीति के दांवपेंच ही देखता आ रहा है। इन दांवपेंचों को देख-परखकर ही सभी दलों काो जनादेश मिला है। जनादेश एनडीए के सत्ता में और इंडिया गठबंध के विपक्ष में बैठने के लिए है। विपक्ष को पूरा अधिकार है कि वह मुद्दों के आधार पर सत्ता पक्ष को सदन से लेकर सड़क तक घेरे। पर राहुल को बिना सोचे समझे कुछ भी बोलने की आदत हो गई है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के बारे में टिप्पणी करते समय सतर्कता बरतने की जरूरत है।
लोकतंत्र में सरकारें आती है जाती है, लेकिन संसदीय परंपराएं और मर्यादा अक्षुण्ण रहती है। हम इसलिए सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश है क्योंकि हमने लोकतांत्रिक परंपराओं को साल दर साल संपन्न किया है। चुनाव में कोई भी जीता हारा, सत्ता हस्तांतरण आसानी से हुआ। दुनिया के मुकाबले हमारा लोकतंत्र जीवंत भी है और पारदर्शी भी। उम्मीद हैं कि सभी पक्ष लोकतंत्र को और मजबूत बनाने में भागीदार बनेंगे।
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