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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created May 3rd, 04:42 by lovelesh shrivatri
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इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले वर्षो में हमारे देश में मेडिकल सुविधाओं का काफी विस्तार हुआ है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इस विस्तार के साथ ही मेडिकल लापरवाही के मामलों में भी तेजी से इजाफा होने लगा है। हाल ही में नेशलन लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन का नवीनतम अध्ययन चौकाने वाला है जिसमें कहा गया हैं कि देश में पिछले एक वर्ष के दौरान मेडिकल लापरवाही के 52 लाख मामले सामने आए। इतना ही नहीं इस दौरान मेडिकल मुकदमेबाजी के मामलों में 400 प्रतिशत की आश्चर्यजनक वृद्धि भी हुई है।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के एक अध्ययन का यह निष्कर्ष भी चितिंत करने वाला हैं कि सिर्फ 46 प्रतिशत अस्पताल या देखभाल केंद्र ही नैतिक दिशा-निर्देशों का पालन करते है। चिकित्सक समुदाय से हमेशा अपेक्षा की जाती रही है कि मरीजों के उपचार में अधिक सतर्कता और पारदर्शिता से काम करेंगे। यह अपेक्षा इसलिए भी क्योंकि किसी भी तरह की लापरवाही मरीज की जान जोखिम में डालने की काफी है। मेडिकल लापरवाही के जो आंकडे सामने आए हैं उससे तो यही लगता हैं कि संबंधित निगरानी तंत्र भी इस दिशा में बेपरवाह है। ऐसे अधिकांश मामलों में यह तथ्य सामने आता रहा हैं कि चिकित्सक मरीजों का उपचार करते समय उपचार से जुड़े समय-समय पर सरकारों की तरफ से जारी निर्देशों की या तो पूरी तरह से पालना ही नहीं करते या फिर आधी-अधूरी पालना कर मरीजों को संकट में डालने का काम करते है। यह भी देखा गया है कि मेडिकल लापरवाही के ज्यादातर मामले मेडिकल और लीगल टर्मिनोलॉजी को समझने में ही अटके रहते है। यही वजह है कि मरीजों और उनके परिजनों को चिकित्सकों और अस्पताल प्रबंधन से बात करने और अपने अधिकार समझने में भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पीडितो की ऐसे मामलों में सबसे बड़ी शिकायत यह रहती है कि उन्हें उपचार से जुडे जरूरी दस्तावेज उपलब्ध ही नहीं कराए जाते। जबकि ये आम तौर पर अस्पताल और डॉक्टर के पास ही होते है। दुर्भाग्य यह है भारत में ये आंकड़े ट्रेक आसानी से ट्रेक ही नहीं हो पाते है।
यह बात सही है कि मेडिकल लापरवाही से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कई उपाय किए है। लेकिन जो तस्वीर सामने है उसे देखते हुए सरकारी स्तर पर कोई कारगर सिस्टम तैयार करने की जरूरत है जिससे उपचार में लापरवाही की शिकायत पर तत्काल समाधान की राह निकलती हो। अस्पताल स्तर पर किसी पोर्टल की व्यवस्था हो तो बेहतर है जहां मरीज या परिजन उपचार संबंधी सभी जानकारी को आसानी से ट्रेक कर सकें।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के एक अध्ययन का यह निष्कर्ष भी चितिंत करने वाला हैं कि सिर्फ 46 प्रतिशत अस्पताल या देखभाल केंद्र ही नैतिक दिशा-निर्देशों का पालन करते है। चिकित्सक समुदाय से हमेशा अपेक्षा की जाती रही है कि मरीजों के उपचार में अधिक सतर्कता और पारदर्शिता से काम करेंगे। यह अपेक्षा इसलिए भी क्योंकि किसी भी तरह की लापरवाही मरीज की जान जोखिम में डालने की काफी है। मेडिकल लापरवाही के जो आंकडे सामने आए हैं उससे तो यही लगता हैं कि संबंधित निगरानी तंत्र भी इस दिशा में बेपरवाह है। ऐसे अधिकांश मामलों में यह तथ्य सामने आता रहा हैं कि चिकित्सक मरीजों का उपचार करते समय उपचार से जुड़े समय-समय पर सरकारों की तरफ से जारी निर्देशों की या तो पूरी तरह से पालना ही नहीं करते या फिर आधी-अधूरी पालना कर मरीजों को संकट में डालने का काम करते है। यह भी देखा गया है कि मेडिकल लापरवाही के ज्यादातर मामले मेडिकल और लीगल टर्मिनोलॉजी को समझने में ही अटके रहते है। यही वजह है कि मरीजों और उनके परिजनों को चिकित्सकों और अस्पताल प्रबंधन से बात करने और अपने अधिकार समझने में भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पीडितो की ऐसे मामलों में सबसे बड़ी शिकायत यह रहती है कि उन्हें उपचार से जुडे जरूरी दस्तावेज उपलब्ध ही नहीं कराए जाते। जबकि ये आम तौर पर अस्पताल और डॉक्टर के पास ही होते है। दुर्भाग्य यह है भारत में ये आंकड़े ट्रेक आसानी से ट्रेक ही नहीं हो पाते है।
यह बात सही है कि मेडिकल लापरवाही से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कई उपाय किए है। लेकिन जो तस्वीर सामने है उसे देखते हुए सरकारी स्तर पर कोई कारगर सिस्टम तैयार करने की जरूरत है जिससे उपचार में लापरवाही की शिकायत पर तत्काल समाधान की राह निकलती हो। अस्पताल स्तर पर किसी पोर्टल की व्यवस्था हो तो बेहतर है जहां मरीज या परिजन उपचार संबंधी सभी जानकारी को आसानी से ट्रेक कर सकें।
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