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created Apr 21st, 07:07 by LAAK
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शांति-अशांति, विचार और विचारधारा ये सब मनुष्य के मन में सनातन काल से चलने वाली हलचलें हैं। जैसे प्रकाश में प्राकृतिक प्रवाह के रूप में गति और विस्तार सनातन काल से है, वैसे ही मन और शरीर में भी गति और प्रवाह निरंतर है। अशांत मन शांति को तलाशता है। शांत मन सारी हलचलों को बीज रूप में अपने आप में समाये रखता है। शांति की तलाश का विचार भी मनुष्य के अशांत मन में आया, यानी अशांति के विस्तार के बाद फिर से मूल शांत स्वरूप में आने की सनातन चाह सहज प्राकृतिक क्रम है। शांति मन की प्रकृति पर सनातन अवस्था है जिसमें अशांति का भाव आते ही मन में अशांति से शांति की और जाने का विचार अपने-आप आ जाता है। शांति जीवन के सनातन प्रवाह का बीज है। सनातन धर्म और विचार सदैव मनुष्य के मन में बीज रूप में ही रहे हैं और रहते आए इसी से सनातन की संज्ञा भी पा गए और समूची धरती के हर हिस्से में अपनी-अपनी तरह से अभिव्यक्त हुए। एक विचार यह भी आया, जो सबको यानी जीव मात्र को स्वत: शांति दे, वह सनातन भाव या सनातन विचार और जो मन में अशांति का भाव लाए, वह सांप्रदायिक विचार। मन, वचन व कर्म को शांत, संयत और प्रकृति से स्वत: ही एकाकार रखे, वह सनातन सत्य विचार और धर्म। जो विचार मन, वचन और कर्म को निरंतर अशांत स्थिति में ले जाए, वह संस्थागत सांप्रदायिक विचार। शांति हलचलविहीन चित्त की सनातन अवस्था है, जो जीव को प्रकृति से स्वत: ही एकरूप कर देती है। चित्त में शांति जीवनी शक्ति के चैतन्य स्वरूप का जीवंत उदाहरण है। अशांतचित्ता जीवन की चेतना के प्रवाह में अवरोध है।
अवरोध क्षणभंगुर ही होते हैं, तभी तो अशांति सनातन नहीं होती। जीव, जीवन का साकार स्वरूप है जिसका एक जीवन क्रम है- जन्म और मृत्यु का अंतहीन सिलसिला। जन्म साकार है, मृत्यु निराकार में समा जाना है। जन्म होते ही नए-नए विचार की सनातन यात्रा मन में प्रारंभ होती है। हर नए मनुष्य के मन में सनातन विचार प्रवाह स्वयं स्फूर्त रूप से निरंतर होता है। शांति और विचार प्राकृतिक चेतना के प्रवाह हैं। जब विचार को निश्र्चित स्वरूप में एक विचारधारा के रूप में ढाला जाता है तो अंतहीन मत-मतांतरों की उत्पत्ति होकर विचार के प्राकृतिक प्रवाह में अवरोध से अशांति, असंतोष और अप्राकृतिक संस्थागत व्यवहार की क्षणिक उत्पत्ति होती है। मेरे-तेरे का सांप्रदायिक विचार और संगठनात्मक या संस्थागत व्यवहार मन के विस्तार को संकुचित करने की कोशिश में लग जाता है। अशांत मन और सांप्रदायिक विचार मनुष्यों के प्राकृतिक स्वरूप को यांत्रिक जड़ता में बदल डालता है। विचारवान मनुष्य का यांत्रिक कठपुतली में बदल जाना मनुष्य की संभावना का असमय खत्म हो जाना है। विचारधाराओं ने विचार को बांधकर मनुष्य को विचार के आधार पर न जाने कितने स्वरूपों में बांटकर मनुष्यों की सनातन ऊर्जा की खपत तेरे-मेरे की संकुचित सोच में खर्च करने का अशांतिमूलक भूल-भुलैया खड़ा कर डाला। शांति और विचार ही सनातन धर्म की प्राकृतिक सभ्यता को निरंतर जारी रखता है। सनातन समय से मानवीय जीवन-मूल्यों की निरंतर उपस्थिति प्रत्येक मनुष्य के मन में बनी रही है। विचार ही इस दुनिया का सनातन सत्य है।
अवरोध क्षणभंगुर ही होते हैं, तभी तो अशांति सनातन नहीं होती। जीव, जीवन का साकार स्वरूप है जिसका एक जीवन क्रम है- जन्म और मृत्यु का अंतहीन सिलसिला। जन्म साकार है, मृत्यु निराकार में समा जाना है। जन्म होते ही नए-नए विचार की सनातन यात्रा मन में प्रारंभ होती है। हर नए मनुष्य के मन में सनातन विचार प्रवाह स्वयं स्फूर्त रूप से निरंतर होता है। शांति और विचार प्राकृतिक चेतना के प्रवाह हैं। जब विचार को निश्र्चित स्वरूप में एक विचारधारा के रूप में ढाला जाता है तो अंतहीन मत-मतांतरों की उत्पत्ति होकर विचार के प्राकृतिक प्रवाह में अवरोध से अशांति, असंतोष और अप्राकृतिक संस्थागत व्यवहार की क्षणिक उत्पत्ति होती है। मेरे-तेरे का सांप्रदायिक विचार और संगठनात्मक या संस्थागत व्यवहार मन के विस्तार को संकुचित करने की कोशिश में लग जाता है। अशांत मन और सांप्रदायिक विचार मनुष्यों के प्राकृतिक स्वरूप को यांत्रिक जड़ता में बदल डालता है। विचारवान मनुष्य का यांत्रिक कठपुतली में बदल जाना मनुष्य की संभावना का असमय खत्म हो जाना है। विचारधाराओं ने विचार को बांधकर मनुष्य को विचार के आधार पर न जाने कितने स्वरूपों में बांटकर मनुष्यों की सनातन ऊर्जा की खपत तेरे-मेरे की संकुचित सोच में खर्च करने का अशांतिमूलक भूल-भुलैया खड़ा कर डाला। शांति और विचार ही सनातन धर्म की प्राकृतिक सभ्यता को निरंतर जारी रखता है। सनातन समय से मानवीय जीवन-मूल्यों की निरंतर उपस्थिति प्रत्येक मनुष्य के मन में बनी रही है। विचार ही इस दुनिया का सनातन सत्य है।
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