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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Feb 16th, 09:07 by lovelesh shrivatri
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देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा हो या फिर राज्यों की विधानसभाएं। जनता इन विधायी संस्थाओं में अपने प्रतिनिधियों का चुनाव इसी उम्मीद में करती हैं कि उनकी आवाज इन सदनों में उठाएंगे। लेकिन पूरे पांच साल कोई निर्वाचित जनप्रतिनिधि एक शब्द भी नहीं बोले तो इसे क्या कहेगे? यही कि जनता के भरोसे पर ये माननीय खरे नहीं उतरे हैं। लोकसभा के 543 सदस्यों में यों तो ऐसे सदस्य भी रहे होगे जिन्होंने कभी कभार ही सदन में किसी भी तरह की चर्चा में हिस्सा लिया होगा या फिर कुछ सवाल पूछे होगे। लेकिन सत्रहवी लोकसभा को लेकर आई यह जानकारी सचमुच चिंताजनक है कि सिने स्टान शत्रुघ्न सिन्हा व सनी देओल समेत नौ सांसदों ने एक बार भी सदन में अपनी बात नहीं कही।
लोकसभा हो या राज्यसभा अथवा राज्यों के विधानमंडल, प्रश्नकाल से लेकर शून्यकाल और विचारार्थ लिए जाने वाले विधेयकों पर बहस के दौरान कई ऐसे मौके आते है जब उन्हें अपनी बात कहने का मौका मिलताा है। लिखित में न सही, यदि कोई जनप्रतिनिधि मौखिक रूप से भी अपनी बात सदनों में उठाता है तो भी उसकी थोड़ी सक्रियताा दिखती है। सत्रहवी लोकसभा के कुछ 15 सत्रों की कार्य उत्पादकता को यों तो 97 फीसदी आंका गया है। जाहिर है लोकसभा में अधिकांश माननीय सदस्यों ने ससंदीय प्रक्रिया में बढ-चढ़कर भाग लिया है। लेकिन सिनेमा के पर्दे पर खूब दहाड़ने वाले अभिनेताओं को भी जनता जब इस तरह की चुप्पी साधे देखती है तो यह जरूर लगता है कि चुनाव जीतने के बाद ये अपने संसदीय क्षेत्र की सुध भी लेते होगे या नहीं। इस सवाल से बड़ा सवाल यह भी है कि ग्लैमर के आधार पर उम्मीदारों को चुनाव मैदान में उतारने का फैसला करने वाले राजनीतिक दल आखिर इन निर्वाचित प्रतिनिधियों की चुप्पी पर सवाल क्यों नहीं करते और सवाल यह भी कि जनता भी ऐसे उम्मीदवारों को अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए क्यों चुनती है। खराब सेहत की वजह से निष्क्रियता को छोड़ दे तो आखिर ऐसा प्रावधान क्यों नहीं कर दिया जाता कि निश्चित समयावधि तक किसी भी जनप्रतिनिधि की सदनों में मौजूदगी के साथ-साथ उनका बोलना भी जरूरी होगा। ऐसे प्रावधान का सकारात्मक असर होगा।
दोष किसी एक दल का नहीं, बल्कि उन सबका है जो चुनावी जीत हासिल करने के लिए सिनेमा अथवा खेल जगत से जुड़े नामी-निरामी चेहरों को उम्मीदवार बनाने लगे है। मुखबंद रखने वाले इन माननीयों की तो एक ही सजा होनी चाहिए कि आगामी लोकसभा चुनावों में कोई भी पार्टी इन्हें अपना उम्मीदार न बनाए। वे टिकट ले भी आए तो फिर जनता ही फैसला सुनाए।
लोकसभा हो या राज्यसभा अथवा राज्यों के विधानमंडल, प्रश्नकाल से लेकर शून्यकाल और विचारार्थ लिए जाने वाले विधेयकों पर बहस के दौरान कई ऐसे मौके आते है जब उन्हें अपनी बात कहने का मौका मिलताा है। लिखित में न सही, यदि कोई जनप्रतिनिधि मौखिक रूप से भी अपनी बात सदनों में उठाता है तो भी उसकी थोड़ी सक्रियताा दिखती है। सत्रहवी लोकसभा के कुछ 15 सत्रों की कार्य उत्पादकता को यों तो 97 फीसदी आंका गया है। जाहिर है लोकसभा में अधिकांश माननीय सदस्यों ने ससंदीय प्रक्रिया में बढ-चढ़कर भाग लिया है। लेकिन सिनेमा के पर्दे पर खूब दहाड़ने वाले अभिनेताओं को भी जनता जब इस तरह की चुप्पी साधे देखती है तो यह जरूर लगता है कि चुनाव जीतने के बाद ये अपने संसदीय क्षेत्र की सुध भी लेते होगे या नहीं। इस सवाल से बड़ा सवाल यह भी है कि ग्लैमर के आधार पर उम्मीदारों को चुनाव मैदान में उतारने का फैसला करने वाले राजनीतिक दल आखिर इन निर्वाचित प्रतिनिधियों की चुप्पी पर सवाल क्यों नहीं करते और सवाल यह भी कि जनता भी ऐसे उम्मीदवारों को अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए क्यों चुनती है। खराब सेहत की वजह से निष्क्रियता को छोड़ दे तो आखिर ऐसा प्रावधान क्यों नहीं कर दिया जाता कि निश्चित समयावधि तक किसी भी जनप्रतिनिधि की सदनों में मौजूदगी के साथ-साथ उनका बोलना भी जरूरी होगा। ऐसे प्रावधान का सकारात्मक असर होगा।
दोष किसी एक दल का नहीं, बल्कि उन सबका है जो चुनावी जीत हासिल करने के लिए सिनेमा अथवा खेल जगत से जुड़े नामी-निरामी चेहरों को उम्मीदवार बनाने लगे है। मुखबंद रखने वाले इन माननीयों की तो एक ही सजा होनी चाहिए कि आगामी लोकसभा चुनावों में कोई भी पार्टी इन्हें अपना उम्मीदार न बनाए। वे टिकट ले भी आए तो फिर जनता ही फैसला सुनाए।
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