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बंसोड कम्प्यूटर टायपिंग इन्स्टीट्यूट मेन रोड गुलाबरा छिन्दवाड़ा (म0प्र0)
created Feb 1st 2023, 05:11 by neetu bhannare
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महोदय, एक अन्य मामले में इस न्यायालय ने न्याय न होना वाक्यांश के अर्थ को स्पष्ट किया है और यह मत व्यक्त किया है कि उच्चतर न्यायालय को इस पर विचार करना चाहिए कि क्या न्याय न होने से संबंधित मुद्दा वास्तव में न्याय न होने से संबंधित है या नहीं या यह मात्र छलावा है। न्यायालय को इस पर भी विचार करना चाहिए कि उक्त पहलू ऐसी प्रकृति से संबंधित है कि इसको स्पष्ट न करने से किसी व्यक्ति विशेष को दंड भोगना पड़़ेगा और यदि यह सत्य है तब न्यायालय यह मत व्यक्त कर सकता है कि चूंकि अभियुक्त को उस पहलू पर अपना स्पष्टीकरण देने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का अनुपालन न किए जाने से न्याय नहीं हुआ है। न्याय न होना अभिव्यक्ति एक अत्यंत अन्याय या दुखद अभिव्यक्ति नहीं है जिसका प्रयोग मामले की किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। न्यायालय को सत्य का पता लगाने का प्रयास करना चाहिए अनुचित दोषसिद्धि किए जाने से ही अन्याय नहीं होता अपितु आवश्यक साक्ष्य प्रस्तुत न किए जाने के परिणामस्वरूप दोषी व्यक्ति के दोषमुक्त हो जाने से भी अन्याय होता है। निस्संदेह अभियुक्त के अधिकारों को ध्यान में रखना चाहिए और उनकी रक्षा भी करनी चाहिए किंतु उन पर इतना अधिक बल नहीं देना चाहिए कि न्यायालय यह भूल जाए कि आहत के भी अधिकार होते हैं। यह दर्शित करना चाहिए कि भारतीय दंड विधिशास्त्र के अधीन अभियुक्त को प्राप्त संरक्षा में अशक्तता आई है या उसके साथ अहित हुआ है प्रतिकूल प्रभाव का निर्वचन उसके मूल अर्थ को लेकर नहीं किया जा सकता है और न ही यह दंड विधिशास्त्र को लागू होता है। प्रतिकूल प्रभाव के अभिवाक् का संबंध अन्वेषण या विचारण से होना चाहिए न कि उन मामलों से जो उसकी परिधि के बाहर आते हैं। जब एक बार अभियुक्त यह दर्शित कर देता है कि किसी भी पहलू के बाबत उस पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और यह कि विधिशास्त्र के अधीन उसे उपलब्ध अधिकारों का भी हनन हुआ है तब अभियुक्त न्यायालय के आदेशों के अधीन लाभ की मांग कर सकता है।
वर्तमान मामले में उपर्युक्त सुस्थापित विधि की प्रतिपादना के आधार पर विचार किया जाना अपेक्षित है।
वर्तमान मामले में उपर्युक्त सुस्थापित विधि की प्रतिपादना के आधार पर विचार किया जाना अपेक्षित है।
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