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बंसोड कम्प्यूटर टायपिंग इंंस्टीट्यूट छिंंदवाड़ा म0प्र0 (ADMISSION OPEN - DCA, PGDCA, CPCT & TALLY) MOB. NO. 8982805777
created Jan 19th 2023, 03:04 by Sawan Ivnati
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देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के साथ लोकसभा के स्पीकर ओम बिड़ला ने बुधवार को जयपुर में जिस तरह से विधायिका के कार्यक्षेत्र में न्यायिक अतिक्रमण का सवाल उठाया, वह सामान्य नहीं है। दोनों ने पीठासीन अधिकारियों के दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए यह बात कही कि जिस तरह से विधायिका न्यायिक फैसले नहीं दे सकती, उसी तरह न्यायपालिका को भी कानून बनाने का अधिकार हड़पने की कोशिशों से बचना चाहिए। ध्यान रहे, राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ खुद एक अच्छे वकील रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस भी कर चुके हैं। ऐसे में उनका यह कहना मायने रखता है कि संविधान की बुनियादी संरचना की अक्षुण्ता से जुड़े बहुचर्चित केशवानंद भारती मामले में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत परंपरा स्थापित करता है। उनकी दलील है कि लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है। ऐसे में संसद में पारित किए गए कानून को कोई दूसरी संस्था अमान्य करार दे तो फिर संसदीय सर्वोच्चता रह कहां जाती है। विधायिका के दो सर्वोच्च पदाधिकारियों की ओर से कही जा रही इन बातों का तात्कालिक संदर्भ जजों की नियुक्ति को लेकर चल रही बहस का है। इससे जुड़े नैशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमिशन (एनजेएसी) एक्ट को असंवैधानिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में खारिज कर दिया था। उपराष्ट्रपति धनखड़ पहले भी उस फैसले की आलोचना कर चुके हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि विधायिका के अधिकारों की रक्षा का हवाला देते हुए संसदीय सर्वोच्चता की जो व्याख्या की जा रही है, वह जाने-अनजाने न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करती जान पड़ रही है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने जिस केशवानंद भारती मामले का जिक्र किया, वह फैसला 1973 में आया था। उसके बाद से न केवल विभिन्न अदालतों की सुनवाइयों के दौरान बल्कि तमाम सरकारों के निर्णयों में भी उस फैसले के शब्दों और भावनाओं का ख्याल रखा जाता रहा है। आधी सदी बाद अब उस फैसले के औचित्य पर सवाल खड़ा करना कितना तर्कपूर्ण माना जाएगा? इससे ऐसा संदेश निकल सकता है कि विधायिका अपने और न्यायपालिका के कार्यक्षेत्रों की नई सीमाएं खींचने की कोशिश कर रही है।
दूसरी बात यह है कि चाहे संसदीय सर्वोच्चता का सिद्धांत हो या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का, भारतीय शासन व्यवस्था के संदर्भ में, इन सबका मूल स्त्रोत देश का संविधान ही है। शासन के सभी महत्वपूर्ण अंग संविधान से ही शक्ति लेते हैं। इसलिए संविधान की सर्वोच्चता असंदिग्ध और निर्विवाद है। न्यायपालिका इसी संविधान की संरक्षक है। संविधान की व्याख्या करने की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर डाली गई है। जाहिर है, सरकार के किसी फैसले या संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून को संविधान की कसौटी पर कसना न्यायपालिका का अधिकार ही नहीं, उसकी जिम्मेदारी है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने जिस केशवानंद भारती मामले का जिक्र किया, वह फैसला 1973 में आया था। उसके बाद से न केवल विभिन्न अदालतों की सुनवाइयों के दौरान बल्कि तमाम सरकारों के निर्णयों में भी उस फैसले के शब्दों और भावनाओं का ख्याल रखा जाता रहा है। आधी सदी बाद अब उस फैसले के औचित्य पर सवाल खड़ा करना कितना तर्कपूर्ण माना जाएगा? इससे ऐसा संदेश निकल सकता है कि विधायिका अपने और न्यायपालिका के कार्यक्षेत्रों की नई सीमाएं खींचने की कोशिश कर रही है।
दूसरी बात यह है कि चाहे संसदीय सर्वोच्चता का सिद्धांत हो या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का, भारतीय शासन व्यवस्था के संदर्भ में, इन सबका मूल स्त्रोत देश का संविधान ही है। शासन के सभी महत्वपूर्ण अंग संविधान से ही शक्ति लेते हैं। इसलिए संविधान की सर्वोच्चता असंदिग्ध और निर्विवाद है। न्यायपालिका इसी संविधान की संरक्षक है। संविधान की व्याख्या करने की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर डाली गई है। जाहिर है, सरकार के किसी फैसले या संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून को संविधान की कसौटी पर कसना न्यायपालिका का अधिकार ही नहीं, उसकी जिम्मेदारी है।
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