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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा (म0प्र0) सीपीसीटी न्यू बैच प्रारंभ संचालक- लकी श्रीवात्री मो. नं. 9098909565
created Nov 28th 2022, 03:54 by lucky shrivatri
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इस धारा में अग्रिम जमानत संबंधी प्रावधान दिये गये है। यह एक प्रकार की प्रत्याशित जमानत होती है जो संज्ञेय अपराध के मामले में गिरफ्तारी की प्रबल आशंका की दशा में आवेदन किया जाने पर जारी की जाती है। दूसरे शब्दों में, इस धारा के उपबंधों का प्रयोग तक किया जाता है जब किसी व्यक्ति को उसके किसी अजमानतीय अपराध के अभियोग में गिरफ्तार किये जाने की आशंका हो। अग्रिम जमानत मंजूर करने की अधिकारिता केवल सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय को ही प्राप्त है। अत: अग्रिम जमानत हेतु आवेदन सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय को ही किया जाएगा तथा इस संबंध में यह न्यायालय अपने विवेकानुसार निर्देश दे सकता है कि इस तरह गिरफ्तार किये जाने पर उस व्यक्ति को जमानत पर छोड़ दिया जाए।
उपधारा 2 में यह उपबन्धित हैं कि किसी व्यक्ति की अग्रिम जमानत मंजूर करते समय सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय, यथास्थिति अपने आदेश में निम्रलिखित शर्ते अधिरोपित कर सकता है। यह कि जमानत पर छोड़ा जाने वाला आवश्यकतानुसार पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए स्वयं को उपलब्ध करेगा। यह कि वह किसी ऐसे व्यक्ति को जो उसके मामले के तथ्यों से अवगत हो, न्यायालय या पुलिस अधिकारी के समक्ष ऐसे तथ्य प्रकट न करने के लिए कोई उत्प्रेण, धमकी या वचन नहीं देगा। ऐसी अन्य कोई शर्त जो धारा 437 (3) के अधीन इस प्रकार अधिरोपित की जा सकती है मानो उस धारा के अधीन जमानत मंजूर की गई है। उपर्युत विवेचन से स्पष्ट हैं कि अग्रिम जमानत जारी करने संबंधी शक्ति का प्रयोग केवल अजमानतीय अपराध की दशा में ही किया जा सकता है, तथा यह शक्ति केवल सेशन न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को ही प्राप्त है न कि इससे भिन्न किसी अन्य न्यायालय को। इस संबंध में न्यायालय द्वारा सिद्धांतों के आधार पर ही निर्णय लिया जाना चाहिए। ऐसे अभियुक्त को जो मृत्युदंड या आजीवन से दंडनीय अपराध का दोषी है, तब तक जमानत पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए जब तक कि उसका मामला धारा 437 (1) के परन्तुक के अन्तर्गत न आता हो।
उल्लेखनीय है कि धारा 438 में वर्णित अग्रिम जमानत संबंधी उपबंध भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन माने जाएंगे। सामान्यत: अग्रिम जमानत के संबंध में उच्च न्यायालय का आदेश अंतिम होता है, अत: उच्चतम न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। परन्तु यदि सेशन न्यायालय ने असंगत और बाह्म आधारों पर अग्रिम जमानत मंजूर की हो तथा उच्च न्यायालय ने उसे रद्द करने से इन्कार कर दिया हो।
उपधारा 2 में यह उपबन्धित हैं कि किसी व्यक्ति की अग्रिम जमानत मंजूर करते समय सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय, यथास्थिति अपने आदेश में निम्रलिखित शर्ते अधिरोपित कर सकता है। यह कि जमानत पर छोड़ा जाने वाला आवश्यकतानुसार पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए स्वयं को उपलब्ध करेगा। यह कि वह किसी ऐसे व्यक्ति को जो उसके मामले के तथ्यों से अवगत हो, न्यायालय या पुलिस अधिकारी के समक्ष ऐसे तथ्य प्रकट न करने के लिए कोई उत्प्रेण, धमकी या वचन नहीं देगा। ऐसी अन्य कोई शर्त जो धारा 437 (3) के अधीन इस प्रकार अधिरोपित की जा सकती है मानो उस धारा के अधीन जमानत मंजूर की गई है। उपर्युत विवेचन से स्पष्ट हैं कि अग्रिम जमानत जारी करने संबंधी शक्ति का प्रयोग केवल अजमानतीय अपराध की दशा में ही किया जा सकता है, तथा यह शक्ति केवल सेशन न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को ही प्राप्त है न कि इससे भिन्न किसी अन्य न्यायालय को। इस संबंध में न्यायालय द्वारा सिद्धांतों के आधार पर ही निर्णय लिया जाना चाहिए। ऐसे अभियुक्त को जो मृत्युदंड या आजीवन से दंडनीय अपराध का दोषी है, तब तक जमानत पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए जब तक कि उसका मामला धारा 437 (1) के परन्तुक के अन्तर्गत न आता हो।
उल्लेखनीय है कि धारा 438 में वर्णित अग्रिम जमानत संबंधी उपबंध भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन माने जाएंगे। सामान्यत: अग्रिम जमानत के संबंध में उच्च न्यायालय का आदेश अंतिम होता है, अत: उच्चतम न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। परन्तु यदि सेशन न्यायालय ने असंगत और बाह्म आधारों पर अग्रिम जमानत मंजूर की हो तथा उच्च न्यायालय ने उसे रद्द करने से इन्कार कर दिया हो।
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