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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Sep 28th 2022, 05:02 by Ramprashad dubey
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तीन महीने बाद ही सही, आखिर चुनाव आयोग असली शिवसेना के निर्धारण की दिशा में आगे तो बढ़ पाया। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को शिवसेना पर एकनाथ शिंदे गुट के दावे को लेकर चुनाव आयोग की कार्यवाही पर लगी रोक हटा ली। आयोग अब कानूनी प्रक्रिया के तहत तय करेगा कि शिवसेना पर असली दावा है किसका?
देश में आजकल राजनीतिक दलों में टूट की घटनाएं लगातार बढ़ रही है। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी हो या आंध्रप्रदेश में तेलुगूदेशम अथवा तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक, हर दल में समय-समय पर नेतृत्व को लेकर विवाद उभरता रहा है। इसी साल 20 जून को शिंदे के नेतृत्व में पहले शिवसेना के 20 विधायक सूरत के रास्ते गुवाहाटी पहुंचे, फिर धीरे-धीरे यह संख्या 40 तक पहुंच गई। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पास सिर्फ 15 विधायक रह गए। परिस्थितियां बदली, तो ठाकरे को अपना पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद मामला अदालत तक पहुंचा और शिंदे ने 30 जून को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। शपथ लेने के बाद से लेकर अब तक शिवसेना पर कब्जे को लेकर लड़ाई अदालत और चुनाव आयोग के बीच झूल रही है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बीच वर्चस्व की लड़ाई के बीच हमारी संसदीय प्रणाली में अनेक खामियां सामने आती हैं। राजनीतिक दलों में टूट को लेकर अनेक नियम हैं। राज्यपाल और विधानसभा की शक्तियों को लेकर भी स्पष्ट व्याख्या है। बावजूद इसके राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्षों पर भी पक्षपात के आरोप लगते हैं। अनेक मौंकों पर सुप्रीम कोर्ट भी इनकी कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठा चुका है। भारत बहु-राजनीतिक दलीय व्यवस्था वाला देश हैं। केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें भी रहती हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों में विभाजन ही हालत में नियम ओर स्पष्ट किए जाने चाहिए। एक दल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव जीतने के बाद अलग दल में जाना अथवा अलग दल बनाना मतदाताओं के साथ विश्वासघात ही माना जाएगा।
शिवसेना पर वर्चस्व का विवाद अभी सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग में चलने वाला हैं। भले ही इसमें थोड़ा समय अधिक लग जाए, लेकिन फैसला एकदम पारदर्शी होना चाहिए। ऐसा फैसला जिसे पढ़कर नियम और धाराएं साफ हो जाएं। राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्षों की शक्तियों में टकराव को लेकर पैदा होने वाली परिस्थितियों पर भी अदालत को स्पष्ट संदेश देने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि सवाल किसी दल या किसी खेमे की जीत का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जीत का है।
देश में आजकल राजनीतिक दलों में टूट की घटनाएं लगातार बढ़ रही है। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी हो या आंध्रप्रदेश में तेलुगूदेशम अथवा तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक, हर दल में समय-समय पर नेतृत्व को लेकर विवाद उभरता रहा है। इसी साल 20 जून को शिंदे के नेतृत्व में पहले शिवसेना के 20 विधायक सूरत के रास्ते गुवाहाटी पहुंचे, फिर धीरे-धीरे यह संख्या 40 तक पहुंच गई। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पास सिर्फ 15 विधायक रह गए। परिस्थितियां बदली, तो ठाकरे को अपना पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद मामला अदालत तक पहुंचा और शिंदे ने 30 जून को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। शपथ लेने के बाद से लेकर अब तक शिवसेना पर कब्जे को लेकर लड़ाई अदालत और चुनाव आयोग के बीच झूल रही है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बीच वर्चस्व की लड़ाई के बीच हमारी संसदीय प्रणाली में अनेक खामियां सामने आती हैं। राजनीतिक दलों में टूट को लेकर अनेक नियम हैं। राज्यपाल और विधानसभा की शक्तियों को लेकर भी स्पष्ट व्याख्या है। बावजूद इसके राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्षों पर भी पक्षपात के आरोप लगते हैं। अनेक मौंकों पर सुप्रीम कोर्ट भी इनकी कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठा चुका है। भारत बहु-राजनीतिक दलीय व्यवस्था वाला देश हैं। केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें भी रहती हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों में विभाजन ही हालत में नियम ओर स्पष्ट किए जाने चाहिए। एक दल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव जीतने के बाद अलग दल में जाना अथवा अलग दल बनाना मतदाताओं के साथ विश्वासघात ही माना जाएगा।
शिवसेना पर वर्चस्व का विवाद अभी सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग में चलने वाला हैं। भले ही इसमें थोड़ा समय अधिक लग जाए, लेकिन फैसला एकदम पारदर्शी होना चाहिए। ऐसा फैसला जिसे पढ़कर नियम और धाराएं साफ हो जाएं। राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्षों की शक्तियों में टकराव को लेकर पैदा होने वाली परिस्थितियों पर भी अदालत को स्पष्ट संदेश देने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि सवाल किसी दल या किसी खेमे की जीत का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जीत का है।
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