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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Sep 28th 2022, 03:49 by rajni shrivatri
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इस धारा के अनुसार राज्य सरकार को यह शक्ति प्राप्त है कि वह धारा 330 या 335 के अन्तर्गत निरूद्ध व्यक्ति को उसके नातेदार या मित्र को सौंपे जाने का आदेश दे सकती है बशर्ते कि ऐसे नातेदार या मित्र इस बात के लिए उचित प्रतिभूति दें कि वे उक्त व्यक्ति की उचित देखभाल करेंगे तथा यह सुनिश्चित करेंगे कि वह व्यक्ति स्वयं को या किसी अन्य को क्षति नहीं पहुंचाएगा और उसे राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट समय या स्थान पर जब भी कहा जाए, मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष पेश किया जाएगा।
जब किसी न्यायालय की उससे इस निमित्त किए गए आवेदन पर या अन्यथा, यह राय है कि न्याय के हित में यह समीचीन है कि धारा 195 की उपधारा (1) के खण्ड में निर्दिष्ट किसी अपराध की, जो उसे यथस्थिति उस न्यायालय की कार्यवाही में ही उसके सम्बन्ध में अथवा उस न्यायालय की कार्यवाही में पेश की गई या साक्ष्य में दी गई दस्तावेज के बारे में किया हुआ प्रतीत होता है, जांच की जानी चाहिए तब ऐसा न्यायालय ऐसी प्रारम्भिक जांच के पश्चात् यदि कोई हो जैसी वह आवश्यक समझे। ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने के लिए पर्याप्त प्रतिभूति ले सकता है अथवा यदि अभिकथित अपराध अजमानतीय है और न्यायालय ऐसा करना आवश्यक समझता है तो, अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास अभिरक्षा में भेज सकता है और ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने और साक्ष्य देने के लिए किसी व्यक्ति को आबद्ध कर सकता है। किसी अपराध के बारे में न्यायालय को उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग ऐसे मामले में जिसमें उस न्यायालय ने उपधारा 1 के अधीन उस अपराध के बारे में न तो परिवाद किया है और न ऐसे परिवाद के किए जाने के आवेदन को नामंजूर किया है उस न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसके ऐसा पूर्वकथित न्यायालय धारा 195 की उपधारा (4) के अर्थ में अधीनस्थ है। इस धारा के अधीन कोई भी सिविल, राजस्व या दंड न्यायालय कार्यवाही तथा प्रारंभिक जांच कर सकता है। तत्पश्चात् वह अपना निष्कर्ष अभिलिखित करेगा तथा स्वयं सक्षम अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग को लिखित में परिवाद फाइल करेगा। मजिस्ट्रेट द्वारा तब तक अभियोजन प्रारम्भ नहीं कराया जाना चाहिए जब तक कि अभियुक्त के दोषसिद्ध आधार न हो। ज्ञातव्य है कि धारा 340 के अधीन की गई कार्यवाही एक स्वंतत्र कार्यवाही होती है जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक आपराधिक कार्यवाही माना गया है।
जब किसी न्यायालय की उससे इस निमित्त किए गए आवेदन पर या अन्यथा, यह राय है कि न्याय के हित में यह समीचीन है कि धारा 195 की उपधारा (1) के खण्ड में निर्दिष्ट किसी अपराध की, जो उसे यथस्थिति उस न्यायालय की कार्यवाही में ही उसके सम्बन्ध में अथवा उस न्यायालय की कार्यवाही में पेश की गई या साक्ष्य में दी गई दस्तावेज के बारे में किया हुआ प्रतीत होता है, जांच की जानी चाहिए तब ऐसा न्यायालय ऐसी प्रारम्भिक जांच के पश्चात् यदि कोई हो जैसी वह आवश्यक समझे। ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने के लिए पर्याप्त प्रतिभूति ले सकता है अथवा यदि अभिकथित अपराध अजमानतीय है और न्यायालय ऐसा करना आवश्यक समझता है तो, अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास अभिरक्षा में भेज सकता है और ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने और साक्ष्य देने के लिए किसी व्यक्ति को आबद्ध कर सकता है। किसी अपराध के बारे में न्यायालय को उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग ऐसे मामले में जिसमें उस न्यायालय ने उपधारा 1 के अधीन उस अपराध के बारे में न तो परिवाद किया है और न ऐसे परिवाद के किए जाने के आवेदन को नामंजूर किया है उस न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसके ऐसा पूर्वकथित न्यायालय धारा 195 की उपधारा (4) के अर्थ में अधीनस्थ है। इस धारा के अधीन कोई भी सिविल, राजस्व या दंड न्यायालय कार्यवाही तथा प्रारंभिक जांच कर सकता है। तत्पश्चात् वह अपना निष्कर्ष अभिलिखित करेगा तथा स्वयं सक्षम अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग को लिखित में परिवाद फाइल करेगा। मजिस्ट्रेट द्वारा तब तक अभियोजन प्रारम्भ नहीं कराया जाना चाहिए जब तक कि अभियुक्त के दोषसिद्ध आधार न हो। ज्ञातव्य है कि धारा 340 के अधीन की गई कार्यवाही एक स्वंतत्र कार्यवाही होती है जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक आपराधिक कार्यवाही माना गया है।
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