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created Jan 25th 2022, 05:58 by Jyotishrivatri
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जीडीपी वृद्धि, प्रौधोगिक प्लेटफार्म के लाभ, शेयर बजार, अर्थव्यवस्था की गति को नापने के मापदंड यकायक तब धराशयी होते दिखाई दिए जब कोविड महामारी ने संपूर्ण विश्व को चपेट में ले लिया। ऐसी अवस्था में अर्थव्यवस्था की लचार स्थिति को तब अगर कोई संभालने में गतिशील था तो वह शक्ति, जिसके अदृश्य कार्यों का मूल्यांकन आर्थिक गणना की गणित में कही पर भी सटीक नहीं बैठता। लाभ-हानि के जोड-तोड में लगी मानसिक जकडन आज तक यह समझने में नाकाम रही है कि अगर दुनिया भर की महिलाएं भोजन बनाने, बड़ों की देखभाल करने, बच्चों के लालन-पालन और वे तमाम काम, जिनके बगैर घर की व्यवस्था चरमरा जाए, छोड दे तो क्या स्वयं को अर्थव्यवस्था का पहिया घोषित करने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था टिक पाएगी। सामाजिक ढांचे की सबसे बडी खामी यह है कि उन कार्यो को ही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त है जो अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष रूप से बढ़ोत्तरी करते हैं। अन्यथा वे सभी कार्य मूल्यहीन है जिनका अर्थ अर्जन से प्रत्यक्ष सरोकार नहीं है जबकि वास्तविकता में मूल्यहीन प्रतीत होने वाले कार्य अर्थव्यवस्था के अदृश्य संचालक होते है। गृहिणी परिवार की धुरी के रूप में तीन वर्गों की देखभाल करती है जो अर्थव्यवस्था के वाहक हैं। पहला वर्ग परिवार के वरिष्ठ सदस्य, जो आर्थिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष योगदान दे चुके होते हैं, दूसरा युवा वर्ग जो वर्तमान जीडीपी में योगदान दे रहे हैं और तीसरा बच्चे, जो आने वाले सालों में अर्थव्यवस्था में योगदान करेंगे। तकनीकी भाषा में इसे ऐब्स्ट्रेक्ट लेबर कहा जाता है। एक ऐसा श्रम जो किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष रूप में लगे श्रम के पुनर्जीवन में सीधे-सीधे रूप से अपना योगदान देता है। जब भी सामाजिक विचारधारा की आधार भूमि श्रेष्ठता एवं हीनता के भाव पर आधारित होती है, समाज का एक वर्ग उपेक्षित हो जाता है और यही स्थिति न गृहिणियों की है जिनके अनवरत श्रम को हीन समझा जाता रहा है। इस संकीर्ण विचारधारा के विरूद्ध 1975 में आइसलैंड की 90% महिलाओं ने 24 अक्टूबर को एक दिन के लिए खाना बनाने, सफाई करने व बच्चों की देखभाल करने से इंकार कर दिया। महिलों की इस घोषणा से एकाएक पूरा देश रूक गया। काम पर गए पूरूषों को तत्काल घर वापसी करनी पड़ी। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि गृहिणियों की निरंतर अवहेलना ने उनके आत्मसम्मान को इस हद तक चोट पहुंचाई है कि वे अपना अस्तित्व ही नगण्य समझने लगी है। ऑफ्सफैम की टाइम टु केयर रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में हर साल महिलाएं करीब 10 हजार अरब डॉलर के अवैतिक घरेलू कार्य करती हैं। समय आ गया है कि इस सच को पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्वीकारे कि गृहिणियों का कार्य सम्मानीय ही नहीं, अर्थव्यवस्था की मजबूती की नींव भी है।
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