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सॉंई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565
created Jan 14th 2022, 13:07 by sandhya shrivatri
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जिस शिक्षा के द्वारा देश का चरित्र निर्माण किया जाता है, वह आज सरेराह बिकती नजर आ रही है। देश आज भी बेरोजगार है, गुलाम है। शिक्षा व्यवस्था में जनहित व राष्ट्रहित नहीं है। स्कूल स्तर पर जहां बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण के साथ उनमें जीवन जीने की समझ पैदा करनी चाहिए वहां पाठ्यक्रमों में देश-प्रदेश और संस्कार ही नदारद हैं। अंग्रेजी माध्यम तो विकास के नाम पर बच्चों को अपनी माटी से दूर कर रहा है। मां-बाप को भी मातृभाषा में पढ़ते बच्चे हीन और अंग्रेजी बोलते हुए विकसित नजर आते हैं।
शिक्षा नीति के निर्माता, संचालक व कार्यरूप देने वाले, शिक्षा विभाग के शीर्ष अधिकारी सूट-बूट वाले अंग्रेजी चिंतन के अनुयायी लगते हैं। खुद भी पेट भरने के लिए जी रहे हैं और शिक्षा के जरिए पेट भरने वाले ही तैयार कर रहे हैं। आज शिक्षा विभाग ही बेरोजगारों को ठग रहा है। कभी भर्ती तो कभी परीक्षा। सब वर्षों तक चलते हैं। परीक्षा के पेपर लीक होते हैं। बेरोजगारों से पैसे खा जाते हैं। आखिर कोई भी परीक्षा रद्द होने पर वसूला गया पैसा अगली परीक्षा में काम क्यों नहीं आता? भला ऐसा विभाग देश का चरित्र निर्माण कैसा करेगा? चिंता यही है कि मानव को कलियुग में पेट भरना सिखाने के लिए बीस वर्ष तक शिक्षा लेनी पड़ रही है। शेष जीवन ऐसा व्यक्ति किसके काम आ सकेगा? अपना पेट भरेगा-रिटायर होकर बाद में इस दुनिया से विदा भी हो जाएगा।
शिक्षा में जीवन की समग्रता और संपूर्ण अध्यात्म का समावेश होना चाहिए। विडम्बना यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी हम गुलाम ही हैं। क्या अर्थ है आजादी के अमृत महोत्सव का? कोई संकल्प नहीं भारत की अपनी पहचान प्राप्त करने का। आज भी हमारी विधायिका, हमारी कार्यपालिका व न्यायपालिका अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त है। सारे कानून आज भी पराए जैसे हैं। संस्कृति से तो मेल खाते ही नहीं। जीवन कहीं ओर चलता है, कानून का डंडा कहीं ओर। कानून बनाने वाला आज भी अंग्रेजी की तरफ देखता है। देशवासियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह उसका विषय नहीं है। कितने नए मुकदमे बढ़ जाएंगे, कितना जनमानस आंदोलित होगा, कोर्ट के सामने क्या रखा जाएगा, फरियादी के कुछ समझ में आएगा या नहीं, इनमें से किसी भी विषय पर चर्चा नहीं होती। पैराकारों का अपना कारोबार चलता है। फरियादी घर बेचता हुआ मर जाता है। शास्त्र हों या इतिहास, हमारी न्याय व्यवस्था तो ऐसी नहीं थी। आज व्यवस्था भारी है, इंसान गौण हो गया। अस्पतालों में मरीजों से ज्यादा बिलों पर ध्यान होता है। अस्पतालों में मरीज हों या दफ्तरों में फरियादी, कहीं भी भारत दिखाई नहीं पड़ता। चारों ओर आज भी अंग्रेज बैठे हैं यही शिक्षा नीति की उपलब्धि है। इसी कारण हर साल गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या बढ़ रही है। वे भारतीय हैं।
शिक्षा नीति के निर्माता, संचालक व कार्यरूप देने वाले, शिक्षा विभाग के शीर्ष अधिकारी सूट-बूट वाले अंग्रेजी चिंतन के अनुयायी लगते हैं। खुद भी पेट भरने के लिए जी रहे हैं और शिक्षा के जरिए पेट भरने वाले ही तैयार कर रहे हैं। आज शिक्षा विभाग ही बेरोजगारों को ठग रहा है। कभी भर्ती तो कभी परीक्षा। सब वर्षों तक चलते हैं। परीक्षा के पेपर लीक होते हैं। बेरोजगारों से पैसे खा जाते हैं। आखिर कोई भी परीक्षा रद्द होने पर वसूला गया पैसा अगली परीक्षा में काम क्यों नहीं आता? भला ऐसा विभाग देश का चरित्र निर्माण कैसा करेगा? चिंता यही है कि मानव को कलियुग में पेट भरना सिखाने के लिए बीस वर्ष तक शिक्षा लेनी पड़ रही है। शेष जीवन ऐसा व्यक्ति किसके काम आ सकेगा? अपना पेट भरेगा-रिटायर होकर बाद में इस दुनिया से विदा भी हो जाएगा।
शिक्षा में जीवन की समग्रता और संपूर्ण अध्यात्म का समावेश होना चाहिए। विडम्बना यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी हम गुलाम ही हैं। क्या अर्थ है आजादी के अमृत महोत्सव का? कोई संकल्प नहीं भारत की अपनी पहचान प्राप्त करने का। आज भी हमारी विधायिका, हमारी कार्यपालिका व न्यायपालिका अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त है। सारे कानून आज भी पराए जैसे हैं। संस्कृति से तो मेल खाते ही नहीं। जीवन कहीं ओर चलता है, कानून का डंडा कहीं ओर। कानून बनाने वाला आज भी अंग्रेजी की तरफ देखता है। देशवासियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह उसका विषय नहीं है। कितने नए मुकदमे बढ़ जाएंगे, कितना जनमानस आंदोलित होगा, कोर्ट के सामने क्या रखा जाएगा, फरियादी के कुछ समझ में आएगा या नहीं, इनमें से किसी भी विषय पर चर्चा नहीं होती। पैराकारों का अपना कारोबार चलता है। फरियादी घर बेचता हुआ मर जाता है। शास्त्र हों या इतिहास, हमारी न्याय व्यवस्था तो ऐसी नहीं थी। आज व्यवस्था भारी है, इंसान गौण हो गया। अस्पतालों में मरीजों से ज्यादा बिलों पर ध्यान होता है। अस्पतालों में मरीज हों या दफ्तरों में फरियादी, कहीं भी भारत दिखाई नहीं पड़ता। चारों ओर आज भी अंग्रेज बैठे हैं यही शिक्षा नीति की उपलब्धि है। इसी कारण हर साल गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या बढ़ रही है। वे भारतीय हैं।
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