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बंसोड टायपिंग इन्स्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0
created Oct 20th 2021, 14:35 by sachin bansod
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पेशवा नारायणराव की पुत्री सुनंदा ने अपनी बुआ रानी लक्ष्मीबाई की तरह अंग्रेजों की सत्ता को चुनौती देकर निर्भीकता का परिचय दिया। सुनंदा को अंग्रेजों ने त्रिचनापल्ली की जेल में बंद कर दिया। वहां से मुक होते ही वे एकांत में भक्ति-साधना करने नैमिषारण्य जा पहुंचीं। वहां वे परम विरक्त संत गौरीशंकरजी के संपर्क में आईं। संतजी सत्संग के लिए आने वालों को स्वदेशी व स्वधर्म प्रेम के लिए प्रेरित करते थे। सुनंदा उनकी शिष्या बन गईं। साध्वी सुनंदा ने साधु-संतों से संपर्क कर उन्हें स्वदेशी व स्वधर्म के लिए जन-जागरण करने के लिए तैयार किया। नैमिषारण्य में लोग साध्वी तपस्विनी के नाम से उन्हें पुकारने लगे। वे साधुओं की टोली के साथ गांवों में पहुंचतीं और ग्रामीणों को विदेशी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की प्रेरणा देतीं। अंग्रेजों को जब साधु-संतों के इस अभियान का पता चला, तो सीतापुर के आस-पास के अनेक साधुओं को गोलियों से उड़ा दिया गया। तपस्विनी सुनंदा चुपचाप नेपाल जा पहुंचीं। वहां से गुप्त रूप से पुणे पहुंचकर उन्होंने लोकमान्य तिलक से आशीर्वाद लिया। वे स्वामी विवेकानंदजी से भी बहुत प्रभावित थीं। उन्होंने कलकत्ता में महाकाली कन्या विद्यालय की स्थापना की।
सुनंदा ने बंग-भंग के विरोध में हुए आंदोलन में भाग लिया। 16 अगस्त, 1906 को कोलकाता में रक्षाबंधन के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में हुंकार भरते हुए उन्होंने कहा, यदि हम रक्षाबंधन के पवित्र दिन विदेशी वस्तुओं के पूर्ण बहिष्कार का संकप्ल ले लें, तो अंग्रेजी सत्ता की जड़े हिल जाएंगी। अगले ही वर्ष 1907 में राष्ट्रभक्त तपस्विनी ने कोलकाता में स्वदेशी का प्रचार करते हुए अंतिम सांस ली।
सुनंदा ने बंग-भंग के विरोध में हुए आंदोलन में भाग लिया। 16 अगस्त, 1906 को कोलकाता में रक्षाबंधन के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में हुंकार भरते हुए उन्होंने कहा, यदि हम रक्षाबंधन के पवित्र दिन विदेशी वस्तुओं के पूर्ण बहिष्कार का संकप्ल ले लें, तो अंग्रेजी सत्ता की जड़े हिल जाएंगी। अगले ही वर्ष 1907 में राष्ट्रभक्त तपस्विनी ने कोलकाता में स्वदेशी का प्रचार करते हुए अंतिम सांस ली।
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