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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || ༺•|✤मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय परीक्षा हेतु✤|•༻
created Jul 15th 2021, 12:10 by akash khare
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सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले ने न केवल संविधान की उपयुक्त व्याख्या करके भविष्य के संदेहों और उलझनों को दूर किया है बल्कि संसदीय लोकतंत्र की राह पर नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को संसद के निचले सदन को बहाल करते हुए निर्देश दिया कि नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाए। पांच महीने में यह दूसरा मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट ने संसद के निचले सदन को भंग करने के राष्ट्रपति के फैसले को असंवैधानिक करार दिया। किसी संसदीय लोकतंत्र में न्यायपालिका का राष्ट्रपति को यह निर्देश देना सामान्य नहीं माना जा सकता कि फलां व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करें, लेकिन जिन हालात से नेपाल पिछले कुछ समय से गुजर रहा है, उसे देखते हुए न्यायपालिका का यह दखल आदर्श नहीं तो आवश्यक जरूर कहा जाएगा। राजतंत्र से लोकतंत्र में प्रवेश के बाद की पिछले डेढ़ दशक की यात्रा नेपाल के लिए खासी उतार-चढ़ाव भरी रही। उससे पहले का एक पूरा दशक जनयुद्ध में गंवा चुका।
नेपाल राजतंत्र के खात्मे के बाद भी राजनीतिक अनिश्चितता से जुझता रहा। 2015 में नया संविधान लागू होने और उसके मुताबिक निर्वाचित सरकार बन जाने के बाद भी उसे राजनीतिक स्थिरता नसीब नहीं हुई। सत्तारूढ़ पार्टी में राजनीतिक मतभेदों के चलते सरकार अल्पमत में आ चुकी थी, लेकिन संसद का निचला सदन भंग करने की सिफारिश कर दी, जिसे राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने स्वीकार भी कर लिया। विपक्षी दलों की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 23 फरवरी को राष्ट्रपति का यह फैसला पलट दिया।
नतीजा यह कि संसद का सत्र शुरू होने पर 10 मई को ओली सरकार सदन में विश्वास मत हासिल नहीं कर सकी। दिलचस्प बात यह कि विश्वास प्रस्ताव गिर जाने के बावजूद उन्होंने फिर निचला सदन भंग करने की सिफारिश कर दी और राष्ट्रपति ने फिर उनकी सिफारिश स्वीकार कर ली। इस फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। नेपाली कांग्रेस की पिटिशन में 146 सासंदों ने हस्ताक्षर किए थे।
नेपाल राजतंत्र के खात्मे के बाद भी राजनीतिक अनिश्चितता से जुझता रहा। 2015 में नया संविधान लागू होने और उसके मुताबिक निर्वाचित सरकार बन जाने के बाद भी उसे राजनीतिक स्थिरता नसीब नहीं हुई। सत्तारूढ़ पार्टी में राजनीतिक मतभेदों के चलते सरकार अल्पमत में आ चुकी थी, लेकिन संसद का निचला सदन भंग करने की सिफारिश कर दी, जिसे राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने स्वीकार भी कर लिया। विपक्षी दलों की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 23 फरवरी को राष्ट्रपति का यह फैसला पलट दिया।
नतीजा यह कि संसद का सत्र शुरू होने पर 10 मई को ओली सरकार सदन में विश्वास मत हासिल नहीं कर सकी। दिलचस्प बात यह कि विश्वास प्रस्ताव गिर जाने के बावजूद उन्होंने फिर निचला सदन भंग करने की सिफारिश कर दी और राष्ट्रपति ने फिर उनकी सिफारिश स्वीकार कर ली। इस फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। नेपाली कांग्रेस की पिटिशन में 146 सासंदों ने हस्ताक्षर किए थे।
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