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created Jul 14th 2021, 07:59 by lovelesh shrivatri
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संसद का मानसून सत्र 19 जुलाई से होने जा रहा है। 13 अगस्त तक चलने वाले इस सत्र में 19 बैठकें होने की संभावना है। कोरोना महामारी आने के बाद से पिछले साल शीतकालीन सत्र हो नहीं पाया और बजट सत्र भी समय से पहले समाप्त हो गया। कहा जा सकता है कि बीते साल में संसद सत्र पहले की तरह नहीं चल पाया। देश आज कोरोना के कहर से उबरने की जद्देजहद में डूबा है। तीसरी लहर की आशंका को लेकर केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारे चितिंत है। सरकारों की आर्थिक हालत खस्ता हैं तो महंगाई ने आमजन का जीना दुश्वार कर दिया है। पिछले सवा साल में कोरोना से संक्रमित हुए तीन करोड़ से अधिक भारतीयों में से चार लाख अपनी जान गंवा चुके है तो लगभग साढ़े चार लाख लोग अब भी कोरोना से उबरने के लिए संघर्ष कर रहे है।
ऐसे में संसद के मानसून सत्र का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। साथ ही राजनीतिक दलों की जिम्मेदारियां भी। संसद देश के सामने मौजूद समस्याओं के समाधान के लिए विचार-विमर्श करने का मंच है। भावी चुनौतियों की रणनीति पर चिंतन-मनन करने का सर्वोत्तम स्थान भी संसद है। बावजूद इसके, पिछले कुछ सालों में संसद की महत्ता कम होती जा रही है। तार्किक बहस का स्थान शोरगुल और हंगामा ले चुका है। न सरकार अपनी भूमिका में खरा उतर पा रही है, ना विपक्ष। संसाद पर भी राजनीतिक रस्साकसी हावी होती साफ नजर आ रही है। देश इस समय गंभीर दौर से गुजर रहा है। आर्थिक चुनौतियां तो हैं ही चीन के साथ टकराव से निपटना भी चुनौती है। महंगाई और बेरोगारी जैसे मुद्दे अपनी जगह कायम है। इन चुनौतियों से अकेले सरकार नहीं निपट सकती। उसे विपक्ष का सहयोग भी चाहिए और जनता का भी। चुनावी हार-जीत का असर संसद के कामकाज पर नहीं दिखें तो अच्छे परिणाम की उम्मीद की जा सकती है।
विभिन्न मुद्दों पर सरकार और विपक्ष के बीच टकराव होना चाहिए लेकिन सीमित दायरे मे। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए संसद का उपयोग नहीं होना चाहिए। संसद के हर सत्र से पहले सरकार और विपक्ष के बीच सर्वदलीय बैठक में अनेक मुद्दों पर सहमति बनती है। लेकिन ये सहमति कागजों तक सीमित रह जाती है। प्रयास होने चाहिए कि इस बार संसद नई भूमिका में नजर आए।
ऐसे में संसद के मानसून सत्र का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। साथ ही राजनीतिक दलों की जिम्मेदारियां भी। संसद देश के सामने मौजूद समस्याओं के समाधान के लिए विचार-विमर्श करने का मंच है। भावी चुनौतियों की रणनीति पर चिंतन-मनन करने का सर्वोत्तम स्थान भी संसद है। बावजूद इसके, पिछले कुछ सालों में संसद की महत्ता कम होती जा रही है। तार्किक बहस का स्थान शोरगुल और हंगामा ले चुका है। न सरकार अपनी भूमिका में खरा उतर पा रही है, ना विपक्ष। संसाद पर भी राजनीतिक रस्साकसी हावी होती साफ नजर आ रही है। देश इस समय गंभीर दौर से गुजर रहा है। आर्थिक चुनौतियां तो हैं ही चीन के साथ टकराव से निपटना भी चुनौती है। महंगाई और बेरोगारी जैसे मुद्दे अपनी जगह कायम है। इन चुनौतियों से अकेले सरकार नहीं निपट सकती। उसे विपक्ष का सहयोग भी चाहिए और जनता का भी। चुनावी हार-जीत का असर संसद के कामकाज पर नहीं दिखें तो अच्छे परिणाम की उम्मीद की जा सकती है।
विभिन्न मुद्दों पर सरकार और विपक्ष के बीच टकराव होना चाहिए लेकिन सीमित दायरे मे। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए संसद का उपयोग नहीं होना चाहिए। संसद के हर सत्र से पहले सरकार और विपक्ष के बीच सर्वदलीय बैठक में अनेक मुद्दों पर सहमति बनती है। लेकिन ये सहमति कागजों तक सीमित रह जाती है। प्रयास होने चाहिए कि इस बार संसद नई भूमिका में नजर आए।
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