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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा (म0प्र0) संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565

created Mar 3rd 2021, 04:36 by lovelesh shrivatri


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धर्म जीवन का शाश्‍वत और सार्वभौमिक तत्‍व है। स्‍वामी विवेकानंद ने कहा है कि मनुष्‍य में जो स्‍वाभाविक बल है, उसकी अभिव्‍यक्ति धर्म का अर्थ आत्‍मा को आत्‍मा के  रूप में उपलब्‍ध करना, कि जड़ पदार्थ के रूप में। भगवान महावीर ने कहा है कि धर्म शुद्ध आत्‍मा में ठहरता है और शुद्ध आत्‍मा का दूसरा नाम है। अपने स्‍वभाव में रमण करना और स्‍वयं के द्वारा स्‍वयं को देखना। असल में वास्‍तविक धर्म तो स्‍वयं से स्‍वयं का साक्षात्‍कार ही है। यह नितांत वैयक्तिक विकास की क्रांति है। विडंबना यह है कि हम धर्म के वास्‍तविक स्‍वरूप को भूल गए है। धर्म की भिन्‍न-भिन्‍न परिभाषाएं और भिन्‍न-भिन्‍न स्‍वरूप बना लिए गए है। जीवन की सफलता असफलता के लिए व्‍यक्ति स्‍वयं और उसके कृत्‍य जिम्‍मेदार है। इन कृत्‍यों और जीवन के आचरण को आदर्श रूप में जीना और उनकी नैतिकता-अनैतिकता, अच्‍छाई-बुराई आदि को स्‍वयं द्वारा विश्‍लेषित करना यही धर्मका मूल स्‍वरूप है।  
धर्म को भूलते जाना या उसके वास्‍तविक स्‍वरूप से अनभिज्ञ रहने का ही परिणाम है कि व्‍यक्ति हर क्षण दुख और पीड़ा को जीता है, तनाव का बोझ ढोता है, चिंताओं को विराम नहीं दे पाता, लाभ-हानि, सुख-दुख, हर्ष-विषाद को जीते हुए जीवन के अर्थ को अर्थहीन बनाता है। वह असंतुलन और आडंबर में जीते हुए कहीं कहीं जीवन को भार स्‍वरूप अनुभूत करता है, जबकि इस भार से मुक्‍त होने का उपाय उसी के पास और उसी के भीतर है। आवश्‍यकता है तो अंतस में गोता लगाने की। जब-जब वह इस तरह का प्रयास करता है, तब-तब उसे जीवन की बहुमूल्‍यता की अनुभूति होती है कि जीवन तो श्रेष्‍ठ है, आनन्‍दमय और आदर्श है। लेकिन जब यह महसूस होता है कि श्रेष्‍ठताओं के विकास में अभी बहुत कुछ शेष है,तो इसका कारण स्‍वयं को पहचानने में कहीं कहीं चूह है। यही कारण है कि मुनुष्‍य समस्‍याओं से घिरा हुआ है।  

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