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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565

created Mar 1st 2021, 06:52 by renukamasram


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भारत की करीब 15 करोड़ की आबादी शहरी झुग्‍गी-झोंपडि़यों में बसर करती है। यह आंकड़ा कई शहरों की पूरी या आधी आबादी के बराबर है। आलीशान इलाकों की ऊंची इमारतों के साये में, सड़कों और रेल पटरियों के किनारे पुलों और पुलियाओं के नीचे, विस्‍तार पाते शहरों में बसी ये कच्‍ची बस्तियां कामवाली बाइयों, बागवानों, ड्राइवरों, रेहड़ी ठेले वालों, डिलीवरी वालों, मरम्‍मत का काम करने वालों और धोबिनों का घर हैं। ये लोग शहरी धनाढ्य वर्ग के घरों में काम करते हैं। यह कोई घुमंतू आबादी के लोग नहीं हैं, जिनके मूल निवास गांवों में हैं और वे अतिरिक्‍त आय के लिए शहर आए हैं। वह आबादी अलग है और लाखों में है। उनकी संख्‍या शहर और उसके आस-पास के इलाकों में श्रमिकों की जरूरत के मुताबिक बढ़ती-घटती रहती है। लेकिन कच्‍ची बस्‍ती में रहने वाले लोग वहां के स्‍थयाी निवासी हैं। कुछ ही ऐसे होंगे जो हाल ही शहर में आए हों, लेकिन ज्‍यादातर परिवार ऐसे मिलेंगे जो पीढि़यों से कच्‍ची बस्‍ती में रह रहे होंगे। एक ओर जहां प्रवासी मजदूरों की गंभीर हालत, उनके पलायन के लिए पैदल निकल पड़ने जैसे दृश्‍यों ने लोगों को उद्वेलित किया, वहीं दूसरी ओर इस बात पर किसी का ध्‍यान नहीं गया कि कच्‍ची बस्तियों में रहने वाले लोगों पर महामारी का क्‍या प्रभाव पड़ा होगा? पटना और बेंगलूरू में किए गए सर्वे से खुलासा होता है कि कच्‍ची बस्तियों में रहने वाले लोगों पर महामरी की मार भी कुछ कम नहीं पड़ी है। पिछले दस वर्ष के अध्‍ययन के आधार पर हमने जुलाई से नवम्‍बर 2020 के बीच इन शहरों की 40 कच्‍ची बस्तियों में छह टेलिफोन सर्वे किए। लॉकडाउन की घोषणा होते ही कच्‍ची बस्‍ती में रहने वाले तकरीबन सभी लोग बेरोजगार हो गए। केवल कुछ ही लोगों की नौकरी बच सकी, जो संगठित क्षेत्र में काम कर रहे थे। पटना में कच्‍ची बस्‍ती में रहने वाले 80 प्रतिशत से ज्‍यादा लोगों की नौकरियां चली गई। बहाली की रफ्तार काफी धीमी रही और यह अभी अधूरी है। नवम्‍बर 2020 के मध्‍य तक बेंगलूरू में कोरोना से पूर्व की आय का एक चौथाई और पटना में एक तिहाई भाग भी बहाल नहीं किया जा सका था। कई माह बाद जब लॉकडाउन में ढील देनी शुरू की गई तो लोगों को फिर से नौकरी पर लेना शुरू तो हुआ लेकिन या तो आधे दिन के लिए या पहले से काफी कम वेतन पर, जबकि कई नौकरियां तो रही ही नहीं। ऐसे में इन लोगों ने बिना काम और भुगतान के कैसे महीनों गुजारे होंगे, इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। स्‍वाभाविक तौर पर यह माना जाता है और उम्‍मीद की जाती है कि सार्वजनिक एवं निजी संस्‍थान मुसीबत में फंसे लोगों की मदद के लिए आगे आएंगे। दरअसल सार्वजनिक सहायता तुरंत मिली भी, लेकिन यह जल्‍द ही खत्‍म भी हो गई, यह काफी बंटी हुई थी और इससे बहुत कम जरूरतें पूरी हो पाईं। दो अन्‍य व्‍यवस्‍थाएं अधिक प्रभावी थीं। पहली, ज्‍यादातर लोगों के पास स्‍वयं की सहायता ही प्राथमिक उपाय था। लोगों ने खाने पर खर्च में कटौती की, पड़ोसी से उधार लिया और अपनी कोई परिसंपत्ति बेची।  

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