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BANSOD TYPING INSTITUTE GULABARA CHHINDWARA (M.P.) मो.नं. 8982805777 (सीपीसीटी की सम्पूर्ण तैयारी की जाती है समय तीन घण्टे)
created Nov 23rd 2020, 06:31 by sachinbansod1609336
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दीपावली अपनी संपूर्णता में सहज ही खुशी का संचार करने वाला महोत्सव है। मानव स्वभाव से ही त्योहार या उत्सव प्रेमी रहा है। उत्सव न केवल अपने मनाने वालों को, बल्कि देखने वालों को भी सकारात्मक रूप से प्रेरित करते हैं। पांच दिनों का महोत्सव दीपावली अनेक तरह की व्यावहारिक-धार्मिक-सामाजिक क्रियाकलापों से भरपूर है। मुख्य दीपावली दिवस के दो दिन पहले ही उत्सव शुरू हो जाते हैं और दीपावली के दो दिन बाद तक जारी रहते हैं। धनतेरस, रूपचौदस, दीपोत्सव, गोवर्धन पूजा, भैयादूज, इन सभी का अपना-अपना सुखद महत्व है। जीवन के हर पक्ष को छूने की चेष्टा करता यह महोत्सव आज विशेष रूप से चुनौतियों के रूबरू है। एक महामारी और उसके व्यापक दुष्प्रभाव के साये में दीपावली के दीये उतनी खुशी से शायद नहीं रोशन होंगे, जितनी खुशी से पहले होते थे। पूजा और कर्मकांड का अपना महत्व है, लेकिन दीपावली अपनी धार्मिकता से परे भी जाती है और हमें अंदर और बाहर से सही जीवन की ओर प्रेरित करती है।
आज यदि यह महोत्सव हमें पहले की तरह समृद्ध और चमकदार नहीं बना पा रहा है, तो हमें सोचना होगा कि क्या हम इस महोत्सव को सही अर्थों में मना पा रहे हैं? पहली बात, हमारे सभी उत्सवों-त्योहारों की बुनियाद में साफ-सफाई की कोशिश निहित है। लोग अपनी, अपने घर की और सामुदायिक संसाधनों की भी साफ-सफाई किया करते थे। गांव-शहर के तालाब, जलस्रोत, मंदिर, गलियां, सामुदायिक स्थल, संस्थानों की साफ-सफाई विशेष रूप से की जाती थी, लेकिन अब इसमें कमी आई है। जलस्रोतों की सफाई को हमने सरकारों के जिम्मे डाल दिया है। जिस गली में हम रहते हैं, उसकी सफाई, रोशनी की जिम्मेदारी अब हमारी नहीं है? अपनी जिम्मेदारियों को भूल जाना और यह कहना कि दीपावली पहले जैसी नहीं रही, सरासर अनुचित है। सच्चे अर्थों में उत्सव मनाने के लिए पहले जैसे मूल भावों को समझने की जरूरत है। ऐसा न हो कि हम रोशनी पर ध्यान दें और लोगों को केवल हमारी गंदगी दिखने लगे। हमारी नदियां प्रदूषित हैं, हवा, मिट्टी का बुरा हाल है, तो यह सवाल दुनिया जरूर पूछेगी कि आप उत्सव क्यों मनाते हैं?
किसी राष्ट्र का राष्ट्रपति हमें ‘गंदा’ बोल गया, तो इस अंतरराष्ट्रीय टिप्पणी का प्रत्यक्ष आह्वान यही है कि हम खुद को साफ करें-रखें, ताकि कोई हमें गंदा न बोल सके। दीपावली का एक संदेश यह भी है कि हम जो भी खाएं-पीएं, वो हमारी सेहत के योग्य हो। कहते हैं, खान-पान की अराजकता की वजह से ही कोरोना जैसी बीमारियां पैदा हुईं। निस्संदेह, हमें खान-पान की शुद्धता-अनुकूलता को सुनिश्चित करना होगा। इसके साथ ही, जो लोग खाने-पीने की चीजें पैदा कर रहे हैं, उन्हें भी सजग होना पड़ेगा। एक हाथ से अन्न देकर दूसरे हाथ से हम धुआं देंगे, तो अपने देश में दीपावली को कैसे सार्थक बना पाएंगे? मंदी केवल आर्थिक नहीं होती, आर्थिक मंदी से पहले भाव या संवेदना की भी मंदी आती है। जब हमारी चेतना-संवेदना की भूमि पर मंदी चल रही हो, तब हमें दीपावली का वास्तविक ककहरा फिर सीखना पड़ेगा। अच्छे संकेत मिलने लगे हैं। जब महामारी भी थमती दिख रही है, तब देश इसी उम्मीद में है कि इस दीपावली से भारत और भारतवासियों के जीवन में सुधार की नई शुरुआत होगी।
आज यदि यह महोत्सव हमें पहले की तरह समृद्ध और चमकदार नहीं बना पा रहा है, तो हमें सोचना होगा कि क्या हम इस महोत्सव को सही अर्थों में मना पा रहे हैं? पहली बात, हमारे सभी उत्सवों-त्योहारों की बुनियाद में साफ-सफाई की कोशिश निहित है। लोग अपनी, अपने घर की और सामुदायिक संसाधनों की भी साफ-सफाई किया करते थे। गांव-शहर के तालाब, जलस्रोत, मंदिर, गलियां, सामुदायिक स्थल, संस्थानों की साफ-सफाई विशेष रूप से की जाती थी, लेकिन अब इसमें कमी आई है। जलस्रोतों की सफाई को हमने सरकारों के जिम्मे डाल दिया है। जिस गली में हम रहते हैं, उसकी सफाई, रोशनी की जिम्मेदारी अब हमारी नहीं है? अपनी जिम्मेदारियों को भूल जाना और यह कहना कि दीपावली पहले जैसी नहीं रही, सरासर अनुचित है। सच्चे अर्थों में उत्सव मनाने के लिए पहले जैसे मूल भावों को समझने की जरूरत है। ऐसा न हो कि हम रोशनी पर ध्यान दें और लोगों को केवल हमारी गंदगी दिखने लगे। हमारी नदियां प्रदूषित हैं, हवा, मिट्टी का बुरा हाल है, तो यह सवाल दुनिया जरूर पूछेगी कि आप उत्सव क्यों मनाते हैं?
किसी राष्ट्र का राष्ट्रपति हमें ‘गंदा’ बोल गया, तो इस अंतरराष्ट्रीय टिप्पणी का प्रत्यक्ष आह्वान यही है कि हम खुद को साफ करें-रखें, ताकि कोई हमें गंदा न बोल सके। दीपावली का एक संदेश यह भी है कि हम जो भी खाएं-पीएं, वो हमारी सेहत के योग्य हो। कहते हैं, खान-पान की अराजकता की वजह से ही कोरोना जैसी बीमारियां पैदा हुईं। निस्संदेह, हमें खान-पान की शुद्धता-अनुकूलता को सुनिश्चित करना होगा। इसके साथ ही, जो लोग खाने-पीने की चीजें पैदा कर रहे हैं, उन्हें भी सजग होना पड़ेगा। एक हाथ से अन्न देकर दूसरे हाथ से हम धुआं देंगे, तो अपने देश में दीपावली को कैसे सार्थक बना पाएंगे? मंदी केवल आर्थिक नहीं होती, आर्थिक मंदी से पहले भाव या संवेदना की भी मंदी आती है। जब हमारी चेतना-संवेदना की भूमि पर मंदी चल रही हो, तब हमें दीपावली का वास्तविक ककहरा फिर सीखना पड़ेगा। अच्छे संकेत मिलने लगे हैं। जब महामारी भी थमती दिख रही है, तब देश इसी उम्मीद में है कि इस दीपावली से भारत और भारतवासियों के जीवन में सुधार की नई शुरुआत होगी।
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