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योगेश टायपिंग सेंटर छतरपुर (म.प्र.) 9993129162...
created Sep 19th 2020, 04:04 by Yogesh
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एक नगर में मार्टिन नाम का एक मोची रहा करता था। नीचे के तल्ले में एक तंग कोठरी उसकी थी। वहां से खिड़की की राह सड़क नजर आती, जहां आने-जाने वालों के चेहरे तो नहीं, पर पैर दिखाई दिया करते थे। मार्टिन लोगों के जूतों से ही उनको पहचानने का आदी हो गया था। क्योंकि वहां एक मुद्दत से रहता था ओर बहुतेेेेरे लोगों को जानता था। पास-पड़ौस में शायद कोई जोड़ा जूता होगा जो उसके हाथों न निकला हो। सो खिड़की की राह वह अपना ही काम देखा करता । कुछ जोडि़यों में उसने तला बैठाया था तो कुछ में और मरम्मत की थी। कुछ ऐसे भी होते कि पूरे-के-पूरे उसी के बनाए हुए। काम की मार्टिन के पास कमी नहीं थी, क्योंकि काम वह पूरी सच्चाई और ईमानदारी से करता था।माल अच्छा लगाता और दाम भी वाजिब से ज्यादा नहीं लेता था। बड़ी बात यह थी कि वह वचन का पक्का था। जिस दिन की मांग होती अगर उस दिन पूरा करके दे सकता तो वह काम ले लेता था, नहीं तो साफ कह देता था। वादे करके झुठलाता नहीं था। इसलिए आस-पास सरनाम था और काम की उसके पास कभी कमी नहीं हुआ करती थी।
याेें आदमी वह नेक था और नीति की राह उसने कभी नहीं छोड़ी। और उम्र ज्यादा होने पर तो वह और भी आत्मा की भलाई की और ईश्वर की बातें सोचने लग गया था। अपना निजी काम शुरू करने का वक्त आने से पहले ही, यानी जब वह दूसरे के यहां मजदूरी पर काम किया करता था, तभी उसकी स्त्री का देहांत हो गया था। पीछे एक तीन वर्ष का बच्चा वह छोड़ गई थी। बालक तो और भी हुए थे, पर छुटपन में ही सब जाते रहे थे। पहले तो मार्टिन ने सोचा कि बच्चे को देहात में बहन के यहां भेज दूं। पर, फिर बालक को पास से हटाने को उसका जी नहीं हुआ। 'वहां दूसरे के घर बालक को जाने क्या भुगतना पड़े, क्या नहीं। इससे चलो अपने पास ही जो रहने दूं।'
सो मार्टिन नौकरी छोड़, घर किराये ले, बच्चे के साथ वहीं रहने और अपना काम करने लगा। पर बालक का सुख उनकी किस्मत में न लिखा था। बालक बारह वर्ष का हो चला था और उम्मीद बंधने लगी थी कि बाप के काम में अब कुछ सहाई देने लगेगा कि तभी आया बुखार, हफ्ते भर रहा होगा, और बालक उसमें चल बसा।
एक दिन उसी के गांव के एक बुजुर्ग, जो घर छोड़ पिछले आठ वर्ष से तीर्थ-तीर्थ घूम रहे थे, यात्रा की राह में मार्टिन के पास आये। मार्टिन ने अपने दिल का घाव उनके आगे खोल दिया और सब दु:ख कह सुनाया। बोला- ''अब भाई, मुझे जीने की भी चाहे नहीं रह गई। बस भगवान करे मैं जल्दी यहां से उठ जाऊं। तुम्हीं कहो जग में अब कौन आस मुझे बाकी है ?''
उन वृद्ध ने कहा- ''ऐसी बात मुंह से नहीं करते, मार्टिन। ईश्वर की लीला भला हम क्या जानें। कोई हमारा चाहा यहां थोड़े ही होता है। ईश्वर की मर्जी ही चलती है। उनकी ऐसी ही मर्जी है कि बच्चा चला जाये और तुम जिओ, तो इसीमें कोई भलाई होगी। और जो निराशा की बात करते हो सो वजह है कि तुम बस अपने ही सुख के लिए रहना चाहते हो।'
याेें आदमी वह नेक था और नीति की राह उसने कभी नहीं छोड़ी। और उम्र ज्यादा होने पर तो वह और भी आत्मा की भलाई की और ईश्वर की बातें सोचने लग गया था। अपना निजी काम शुरू करने का वक्त आने से पहले ही, यानी जब वह दूसरे के यहां मजदूरी पर काम किया करता था, तभी उसकी स्त्री का देहांत हो गया था। पीछे एक तीन वर्ष का बच्चा वह छोड़ गई थी। बालक तो और भी हुए थे, पर छुटपन में ही सब जाते रहे थे। पहले तो मार्टिन ने सोचा कि बच्चे को देहात में बहन के यहां भेज दूं। पर, फिर बालक को पास से हटाने को उसका जी नहीं हुआ। 'वहां दूसरे के घर बालक को जाने क्या भुगतना पड़े, क्या नहीं। इससे चलो अपने पास ही जो रहने दूं।'
सो मार्टिन नौकरी छोड़, घर किराये ले, बच्चे के साथ वहीं रहने और अपना काम करने लगा। पर बालक का सुख उनकी किस्मत में न लिखा था। बालक बारह वर्ष का हो चला था और उम्मीद बंधने लगी थी कि बाप के काम में अब कुछ सहाई देने लगेगा कि तभी आया बुखार, हफ्ते भर रहा होगा, और बालक उसमें चल बसा।
एक दिन उसी के गांव के एक बुजुर्ग, जो घर छोड़ पिछले आठ वर्ष से तीर्थ-तीर्थ घूम रहे थे, यात्रा की राह में मार्टिन के पास आये। मार्टिन ने अपने दिल का घाव उनके आगे खोल दिया और सब दु:ख कह सुनाया। बोला- ''अब भाई, मुझे जीने की भी चाहे नहीं रह गई। बस भगवान करे मैं जल्दी यहां से उठ जाऊं। तुम्हीं कहो जग में अब कौन आस मुझे बाकी है ?''
उन वृद्ध ने कहा- ''ऐसी बात मुंह से नहीं करते, मार्टिन। ईश्वर की लीला भला हम क्या जानें। कोई हमारा चाहा यहां थोड़े ही होता है। ईश्वर की मर्जी ही चलती है। उनकी ऐसी ही मर्जी है कि बच्चा चला जाये और तुम जिओ, तो इसीमें कोई भलाई होगी। और जो निराशा की बात करते हो सो वजह है कि तुम बस अपने ही सुख के लिए रहना चाहते हो।'
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