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created Jul 3rd 2020, 17:02 by sourabh Sahu
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किसी भी अपराध के घटित होने के बाद व्यथित पक्षकार के पास आरोपी के विरूद्ध आपराधिक कार्यवाही चलाने के दो मार्ग हैं। इन दोनों रास्तों से कोई भी व्यक्ति पक्षकार न्याय प्राप्त कर सकता है। किसी भी संज्ञेय अपराध के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अंतर्गत पुलिस को सूचना देकर एफआईआर दर्ज करवाने का अधिकार पीडि़त पक्षकार को प्राप्त है। हालांकि अपराध की रिपोर्ट पक्षकार ही दर्ज करवाए यह आवश्यक नहीं है। जब एफआईआर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अंतर्गत दर्ज नहीं की जाती है, तब व्यथित पक्षकार के पास मजिस्ट्रेट के समक्ष निजी परिवाद के माध्यम से न्याय हेतु गुहार लगाना होती है। यह मजिस्ट्रेट को प्राप्त एक अद्भुत शक्ति है तथा पीडि़त को प्राप्त एक अद्भुत अधिकार भी है। जो न्याय के सिरे को संभाले हुए है। इस लेख में मजिस्ट्रेट को कौन सी धाराओं के अंतर्गत परिवाद किया जाता है तथा उसके बाद की क्या प्रक्रिया होती है इस संबंध में विस्तारपूर्वक चर्चा की जा रही है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को निजी परिवाद का आवेदन पीडि़त पक्षकार द्वारा दिया जाता है। ऐसा आवेदन उस परिस्थिति में दिया जाता है, जब पुलिस सीआरपीसी की धारा 154 के अंतर्गत किसी संज्ञेय अपराध एवं धारा 155 के अंतर्गत किसी असंज्ञेय अपराध की रिपोर्ट दर्ज नहीं करती है। यह आवश्यक नहीं है ऐसा आवेदन तभी प्रस्तुत किया जाए, जब पुलिस रिपोर्ट लिखने से इनकार कर दे एवं उसका अन्वेषण करने से इनकार कर दे, संहिता में कहीं भी इस तरह का जिक्र नहीं है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत परिवाद संस्थित किए जाने पर अनुरोध किया जाता है, ऐसा अनुरोध परिवाद को लाने वाला परिवादी करता है। धारा 200 परिवादी को यह अधिकार देती है। संहिता की धारा 200 परिवादी को परिषद पेश करने के अधिकार देने के साथ ही अपराध के संज्ञान के पश्चात परिवादी के विचारण की प्रक्रिया भी उल्लेख करती है। परिवाद शब्द संहिता की धारा 2 (घ) में परिभाषित किया गया है- इस धारा में वर्णित उपधारा के अनुसार परिवाद से आशय मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किए जाने की दृष्टि से किए गए ऐसे मौखिक या लिखित कथन से है जो किसी ज्ञात व अज्ञात व्यक्ति का अपराधी होना दर्शाता है, किंतु इसके अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट सम्मिलित नहीं है, परंतु ऐसे किसी मामले में जो अन्वेषण के पश्चात किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट परिवाद मानी जाएगी तथा वह पुलिस अधिकारी उस रिपोर्ट का परिवादी माना जाएगा। यह कि परिवाद के आधार पर अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट परिवादी की ओर से उपस्थित साक्षी यदि कोई हो तो उसका शपथ पर परीक्षण करें। यह कि ऐसे परीक्षण का सारांश लेखबद्ध रिकॉर्ड किया जाए। यह कि मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे लेखबद्ध सारांश पर परिवादी तथा साक्षियों के हस्ताक्षर ले लिए जाएं। जब दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को परिवाद कर दिया जाता है तो मजिस्ट्रेट परिवादी की परीक्षा के पश्चात दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 के अंतर्गत अपराध का संज्ञान कर लेता है। चरण सिंह बनाम शांति देवी के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभिकथन किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 एवं धारा 202 के अंतर्गत जांच दोनों प्रकार के मामलों अर्थात मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट के अधीन विचारणीय मामले तथा सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय मामलों में की जा सकती है। मजिस्ट्रेट यह उचित समझता है कि किसी प्रकार किसी प्रकरण सेशन की सुपुर्द करना न्याय के हित में नहीं होगा तो उसे परिवाद को खारिज करने की अधिकार शक्ति प्राप्त है।
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